Wednesday, October 13, 2010

.................रूमी गेट.....................

में हूँ रूमी गेट मेरी तामीर नवाब आसिफुद्दौला मिर्ज़ा मोहम्द्द याहिया खान ने जो सन 1775 ईस्वी से 1797 ईस्वी तक अवध के ताजदार थे ने करवाया था,ब़डा इमामबाड़ा, नौबत खाना,शाही वाबली,आसिफी मस्जिद और भूलभुलैया यह सब मेरे ही सामने बने. नवाब आसिफुद्दौला ने ईरान में बने ऐसे ही गेट के तर्ज़ पर मुझे तामीर किये जाने का फरमान हाफिज़ किफ़ायत उल्लाह के नाम जारी कर दिया,लखोरी इंटों के साथ चूने का प्लास्टर मुझ पर किया गया,मेरी वास्तु कला में हिन्दू मुस्लिम दोनों कलाओं का संगम है,सुंदर,मेहराबों और गुलदस्तों की कड़ीयों से मुझे सजाया गया है.
मेने इतिहास को बनते देखा है मच्छी भवन किला मेरी आखों के सामने तोड़ा गया मच्छी भवन कब्रिस्तान आज़ मी है मुझे याद है वो ज़माना जब गल्ला रुपये का आठ सेर बिकता था तब रूमी दरवाज़े यानि मेरे साये में बाज़ार हुआ करती थी तब व्यापारी

सब हिन्दू थे जब वो दुकानें रवोलते थे तो नवाब आसिफुद्दौला का नाम लेते थे.

मुझे याद है ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौजें ने आलमबाग फ़तेह कर ने के बाद शाही दरवाज़े पर जाने कितने क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया था.
आलमबाग, आलमनगर, धनिया मेहरी का पुल, मूसाबाग होकर मेरे सामने से निकला था अंग्रेजों का लश्कर और उनका निशाना था शाह नज़फ़ इमामबाड़ा - जहाँ क्रांतिकारियों ने ज़बरदस्त मोर्चा लगाया था.शाह नज़फ़ फ़तेह हुआ सिकंदरबाग़ पर जंग हुई सिकंदरबाग़ भी फ़तेह हुआ फिर चनों की बाज़ार जिसे तब चनों का हाट कहा जाता था यानि आज का चिनहट में भी ईस्ट इंडिया कम्पनी की फोज जीत गयी.

1857 से लेकर 1887 तक अंग्रेजों ने मुझ पर अपना कब्ज़ा बनाए रखा,और 15 अगस्त 1947 को बटवारें के बाद भारत को आज़ादी मिली बटवारें का गम आज़ादी की खुशी,और अब तक मेरे जिम्मेदारी हुसेनाबाद एलाइड ट्रस्ट को सौप दी गयी और ऐ.एस.आई को रख रखाव की.

पर यह न थी मेरी किस्मत, मेरी हिफाज़त के इंतज़ाम सिर्फ और सिर्फ कागजों पर होता रहा,और मुझे कुछ साल शराबियों,गांजा पीने वालों के सात गुजरने पड़े,पर वो साल कितना अच्छा था जब पर्यटन विभाग ने 60 लाख रूपये खर्च कर डाले और नीचे से लेकार उपर तक रोशनी कर डाली,मुझे याद है वो दौर जब यहाँ बंजर जमीन ,टीले हुआ करते थे और मकानात के नाम पर कुछ कच्चे घर और झोपड़ियाँ हुआ करती थी और तब देखते ही देखते यहिया गंज,फ़तेहगंज,वजीरगंज,रकाबगंज,मोलवीगंज,दौलतगंज,तिकेतगंज,अलीगंज,हुसैनगंज,हसनगंज,मुंशीगंज,लाहोर गंज,भवानीगंज,निवाज गंज गोलागंज ,चारबाग,ऐशबाग,बाद्शाहबाग यह सब मेरे ही सामने बने.

जिस लखनऊ को मेने बनते देखा था उसी लखनऊ के कुछ लोगों से मेरी यह खुशी नहीं देखी गयी,लोग आते थे मुझे देखने के बहाने और लाईट और तार खोल कर ले जाने लगे और एक दिन फिर में डूब गया अन्धेरें में और इसी साल मेरे सीने पर ताला जड दिया गया साल 2002 में प्रदूषण का असर मुझ पर हो गया था,मुझमे दरारे पड़नी शुरू हो गयी थी,तब हुक्मरानों ने तय किया की भारी वाहन यहाँ से होकर नहीं गुजरेंगे कुछ दिन तो इस फरमान परअमल हुआ फिर भूल गये .... और अब साल 2010 में कुछ लोगों को आठ साल पुरानी दरारे दिख रखी हैं तो बताइये क्या कुछ करेंगे आप मेरे लिए ?

.......... (जारी है )

1 comment:

  1. Sanjog ji ,
    Aaj ke logon ko apni aitihasik dharoharon me nahi mauj -masti me dilchaspi hai .Aap ek nek kam kar rahe hain ki aaj ki pidhi ko azadi ke sangharsh ki yaad dila rahe hain.
    DHANYAWAD

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