Tuesday, July 31, 2012

एक थी मीना


फिल्म साहिब बीबी और गीलाम में छोटी बहु (मीना कुमारी ) अकेलेपन से तंग आकर शराब का साहरा लेती है ऐसा ही हुआ असलियत में उनकी ज़िन्दगी जब उन्हें सहारे की ज़रूरत थी तब उनको सहारा नहीं मिला,मीना कुमारी (1अगस्त,1932-31 मार्च,1972) बेमिसाल अदाकारा,जिन्हें "ट्रेजेडी क्वीन" का खिताब मिला,मीना कुमारी का असली नाम महज़बी बानो था और ये बंबई  में पैदा हुई थीं । उनके वालिद अली बक्श भी फिल्मों में और पारसी रंगमंच के मझे  हुये कलाकार थे और उन्होंने कुछ फिल्मों में संगीतकार का भी काम किया था। उनकी वालिदा प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो),भी मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी जिनका ताल्लुक टैगोर  परिवार से था। महज़बी  ने पहली बार किसी फिल्म के लिये छह साल की उम्र में काम किया था। उनका नाम मीना कुमारी विजय भट्ट  की खासी लोकप्रिय फिल्म बैजू बावरा  से  पड़ा। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थे। मीना कुमारी के आने के साथ भारतीय सिनेमा  में नयी अभिनेत्रियों का एक खास दौर शुरु हुआ था जिसमें नरगिस , निम्मी, सुचित्रा सेन और नूतन  शामिल थीं। 1953  तक मीना कुमारी की तीन सफल फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरा, दो बीघा ज़मीन  और परिणीता  शामिल थीं. परिणीता  से मीना कुमारी के लिये  नया युग शुरु हुआ। परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूकि इस फिल्म में भारतीय नारियों के आम जिदगी की तकलीफ़ों का चित्रण करने की कोशिश की गयी थी। लेकिन इसी फिल्म की वजह से उनकी छवि सिर्फ़ दुखांत भूमिकाएँ करने वाले की होकर सीमित हो गयी। लेकिन ऐसा होने के बावज़ूद उनके अभिनय की खास शैली और मोहक आवाज़ का जादू भारतीय दर्शकों पर हमेशा छाया रहा। मीना कुमारी की शादी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही  के साथ हुई जिन्होंने मीना कुमारी की कुछ मशहूर फिल्मों का निर्देशन किया था। लेकिन स्वछंद प्रवृति की मीना अमरोही से 1964  में अलग हो गयीं। उनकी फ़िल्म पाक़ीज़ा  को और उसमें उनके रोल को आज भी सराहा जाता है । शर्मीली मीना के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की। उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में छपी। मीना कुमारी उम्र भर एक पहेली बनी रही महज चालीस साल की उम्र में वो मौत के मुह में चली गयी इसके लिए मीना के इर्दगिर्द कुछ रिश्तेदार,कुछ चाहने वाले और कुछ उनकी दौलत पर नजर गढ़ाए वे लोग हैं, जिन्हें ट्रेजेडी क्वीन की अकाल मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। मीना कुमारी को एक अभिनेत्री के रूप में, एक पत्नी के रूप में,एक प्यासी प्रेमिका के रूप में और एक भटकती-गुमराह होती हर कदम पर धोखा खाती स्त्री के रूप में देखना उनकी जिंदगी का सही पैमाना होगा। मीना कुमारी की नानी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के छोटे भाई की बेटी थी, जो जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही प्यारेलाल नामक युवक के साथ भाग गई थीं। विधवा हो जाने पर उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया। दो बेटे और एक बेटी को लेकर बम्बई आ गईं। नाचने-गाने की कला में माहिर थीं इसलिए बेटी प्रभावती के साथ पारसी थिएटर में भरती हो गईं। प्रभावती की मुलाकात थियेटर के हारमोनियम वादक मास्टर अली बख्श से हुई। उन्होंने प्रभावती से निकाह कर उसे इकबाल बानो बना दिया। अली बख्श से इकबाल को तीन संतान हुईं। खुर्शीद, महज़बी (मीना कुमारी) और तीसरी महलका (माधुरी)। अली बख्श रंगीन मिजाज के व्यक्ति थे। घर की नौकरानी से नजरें चार हुईं और खुले आम रोमांस चलने लगा। परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा था। महजबीं को मात्र चार साल की उम्र में फिल्मकार विजय भट्ट के सामने खड़ा कर दिया गया। इस तरह बीस फिल्में महजबीं (मीना) ने बाल कलाकार के रूप में न चाहते हुए भी की। महज़बीं को अपने पिता से नफरत सी हो गई और पुरुष का स्वार्थी चेहरा उसके जेहन में दर्ज हो गया। फिल्म बैजू बावरा (1952) से मीना कुमारी के नाम से मशहूर महजबीं ने अपने वालिद की इमेज को दरकिनार  करते हुए उनसे  हमदर्दी जताने वाले कमाल अमरोही की शख्सियत में अपना बेहतर आने वाला कल दिखाई दिया,वे उनके नजदीक होती चली गईं। नतीजा यह रहा कि दोनों ने निकाह कर लिया। लेकिन यहाँ उसे कमाल साहब की दूसरी बीवी का दर्जा मिला। उनके निकाह के इकलौते गवाह थे जीनत अमान के अब्बा अमान साहब। कमाल अमरोही और मीना कुमारी की शादीशुदा जिंदगी करीब दस साल तक एक सपने की तरह चली। मगर औलाद न होने की वजह से उनके ताल्लुतक में दरार आने लगी। लिहाज़ा दोनों अलग हो गये कहते है उस रात मीना कुमारी ने जब कमाल अमरोही का घर छोड़ा था,उस रात किसी ने भी उनकी मदद नहीं की भारत भूषण,प्रदीप कुमार,राज कुमार किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया,पैदा होते ही वालिद अली बख्श ने रुपये के तंगी और पहले से दो बेटियों के बोझ से घबरा कर इन्हे एक मुस्लिम अनाथ आश्रम में छोड़ दिया था, मीना कुमारी की माँ के  काफी रोने -धोने पर वे इन्हे वापस ले आए। परिवार हो या शादीशुदा जिंदगी  मीना कुमारी के हिस्से में सिर्फ  तन्हाईयाँ हीं आई,फिल्म फूल और पत्थर (1966) के हीरो ही-मैन धर्मेन्द्र से मीना की नजदीकियाँ, बढ़ने लगीं। इस दौर तक मीना कामयाब,मशहूर व बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट हीरोइन के रूप में जानी जाने लगी थी,धर्मेन्द्र का करियर डाँवाडोल चल रहा था। उन्हें मीना का मजबूत पल्लू थामने में अपनी सफलता महसूस होने लगी। गरम धरम ने मीना को सूनी-सपाट अंधेरी जिंदगी को एक ही-मैन की रोशन से भर दिया। कई तरह के गॉसिप और गरमा-गरम खबरों से फिल्मी पत्रिकाओं के पन्ने रंगे जाने लगे। इसका असर मीना-कमाल के रिश्ते पर भी हुआ। मीना कुमारी का नाम कई लोगों से जोड़ा गया। बॉलीवुड के जानकारों के अनुसार मीना-धर्मेन्द्र के रोमांस की खबरें हवा में बम्बई से दिल्ली  तक के आकाश में उड़ने लगी थीं। जब दिल्ली में वे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन से एक कार्यक्रम में मिलीं तो राष्ट्रपति ने पहला सवाल पूछ लिया कि तुम्हारा बॉयफ्रेंड धर्मेन्द्र कैसा है? फिल्म बैजू बावरा के  दौरान  भारत भूषण भी अपने प्यार का इजहार मीना कुमारी से कर चुके थे। जॉनी (राजकुमार) को मीना कुमार से इतना इश्क हो गया कि वे मीना के साथ सेट पर काम करते अपने डायलोग भूल जाते थे। इसी तरह फिल्मकार मेहबूब खान ने महाराष्ट्र के गर्वनर से कमाल अमरोही का परिचय यह कहकर दिया कि ये प्रसिद्ध स्टार मीना कुमारी के पति हैं। कमाल अमरोही यह सुन नीचे से ऊपर तक आग बबूला हो गए थे। धर्मेन्द्र और मीना के चर्चे भी उन तक पहुँच गए थे। उन्होंने पहला बदला धर्मेन्द्र से यह लिया कि उन्हें पाकीजा से आउट कर दिया। उनकी जगह  राजकुमार की एंट्री हो गई। कहा तो यहाँ तक जाता है कि अपनी फिल्म रजिया सुल्तान में उन्होंने धर्मेन्द्र को रजिया के हब्शी गुलाम प्रेमी का रोल देकर मुँह काला कर दिया था। पाकीजा फिल्म निर्माण में सत्रह साल का समय लगा। इस देरी की वजह मीना-कमाल का अलगाव रहा। लेकिन मीना जानती थी कि फिल्म पाकीजा कमाल साहब का कीमती सपना है। उन्होंने फिल्म बीमारी की हालत में की। मगर तब तक उनकी लाइफ स्टाइल बदल चुकी थी। गुरुदत्त की फिल्म साहिब, बीवी और गुलाम की छोटी बहू परदे से उतरकर मीना की असली जिंदगी में समा गई थी। मीना कुमारी पहली हेरोइन थी,जिन्होंने बॉलीवुड में पराए मर्दों के बीच बैठकर शराब के प्याले पर प्याले खाली किए। धर्मेन्द्र की बेवफाई ने मीना को अकेले में भी पीने पर मजबूर किया। वे छोटी-छोटी बोतलों में शराब भरकर पर्स में रखने लगीं। जब मौका मिला एक शीशी गटक ली। कहते है की  धर्मेन्द्र ने भी मीना कुमारी का इस्तेमाल किया उन दिनों मीना कुमारी की तूती बोलती थी और धर्मेन्द्र नए कलाकार मीना कुमारी ने धर्मेन्द्र की हर तरह से मदद की फूल और पत्थर की कामयाबी  के धर्मेन्द्र उनसे धीरे धीरे अलग होने लगे थे,1964 में धर्मेन्द्र की वज़ह से ही कामल अमरोही ने मीना को तलाक दे दिया  एक बार फिर से धोका मिला मीना कुमारी को,पति का भी साथ छुड गया और प्रेमी भी साथ छोड़ गया है धर्मेन्द्र को कभी उनसे सच्चा प्यार नहीं किया धर्मेन्द्र के लिए मीना तो बस एक जरिया भर थी यह बेबफाई मीना सह ना सकी सह्राब की आदि हो चुकी मीना की मौत लीवर सिरोसिस  की वज़ह से हो गयी दादा मुनि अशोक कुमार, मीना कुमारी के साथ अनेक फिल्में कर चुके थे। एक कलाकार का इस तरह से सरे आम मौत को गले लगाना उन्हें रास नहीं आया। वे होमियोपैथी की छोटी गोलियाँ लेकर इलाज के लिए आगे आए। लेकिन जब मीना का यह जवाब सुना 'दवा खाकर भी मैं जीऊँगी नहीं, यह जानती हूँ मैं। इसलिए कुछ तम्बाकू खा लेने दो। शराब के कुछ घूँट गले के नीचे उतर जाने दो' तो वे भीतर तक काँप गए। आखिर 1956 में मुहूर्त से शुरू हुई पाकीजा 4 फरवरी 1972 को रिलीज हुई और 31 मार्च,1972 को मीना चल बसी।  शुरूआत में पाकीज़ा को ख़ास कामयाबी नहीं मिली मिली थी पर मीना कुमारी की मौत ने फिल्म को हिट कर दिया तमाम बंधनों को पीछे छोड़ तनहा चल दी बादलों के पार अपने सच्चे प्रेमी की तलाश में। पाकीजा सुपरहिट रही। अमर हो गईं ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी। मगर अस्पताल का अंतिम बिल चुकाने लायक भी पैसे नहीं थे उस तनहा मीना कुमारी  के पास।  अस्पताल का बिल अदा किया वहाँ के एक डॉक्टर ने,जो मीना का जबरदस्त प्रशंसक था। "बैजू बावरा","परिणीता","एक ही रास्ता", शारदा"."मिस मेरी","चार दिल चार राहें","दिल अपना और प्रीत पराई","आरती","भाभी की चूडियाँ","मैं चुप रहूंगी","साहब बीबी और गुलाम","दिल एक मंदिर","चित्रलेखा","काजल","फूल और पत्थर","मँझली दीदी",'मेरे अपने",पाकीजा के किरदारों में उन्होंने  जान डाल थी,मीना कुमारी ने 'हिन्दी सिनेमा' में जिस मुकाम को हासिल किया वो आज भी मिसाल बना हुआ है । वो लाज़वाब अदाकारा के साथ शायरा भी थी,अपने दिली जज्बात को उन्होंने जिस तरह कलमबंद किया उन्हें पढ़ कर ऐसा लगता है कि मानो कोई नसों में चुपके -चुपके हजारों सुईयाँ चुभो रहा हो. गम के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम कलमकारों के बूते की बात होती है. गम का ये दामन शायद 'अल्लाह ताला' की वदीयत थी जैसे। तभी तो कहा उन्होंने -कहाँ अब मैं इस गम से घबरा के जाऊँ
कि यह ग़म तुम्हारी वदीयत है मुझको
चाँद तन्हा है,आस्मां तन्हा
दिल मिला है कहाँ -कहाँ तन्हां

बुझ गई आस, छुप गया तारा
थात्थारता रहा धुआं तन्हां

जिंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हां है और जां तन्हां

हमसफ़र कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हां

जलती -बुझती -सी रौशनी के परे
सिमटा -सिमटा -सा एक मकां तन्हां

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये मकां तन्हा

टुकडे -टुकडे दिन बिता, धज्जी -धज्जी रात मिली
जितना -जितना आँचल था, उतनी हीं सौगात मिली

जब चाह दिल को समझे, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसा कोई कहता हो, ले फ़िर तुझको मात मिली

होंठों तक आते -आते, जाने कितने रूप भरे
जलती -बुझती आंखों में, सदा-सी जो बात मिली
 गुलज़ार साहब ने उनको एक नज़्म दिया था. लिखा था :

शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा -लम्हा खोल रही है
पत्ता -पत्ता बीन रही है
एक एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक -एक सांस को खोल कर आपने तन पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की कैदी
रेशम की यह शायरा एक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगी
जिस वक्त मीना कुमारी  उम्र हेरोइन पेड़ के चक्कर लगाकर प्रेम गीत गा रही थी तब मीना कुमारी ने "मेरे अपने""गोमती के किनारे"में अपने बालों में सफ़ेदी लगाकर बुज़ुर्ग किरदार किये थे,"दुश्मन" में वो भाभी के किरदार में थी,जवाब में जीतेन्द्र की बड़ी बहन का किरदार बखूबी निभाया उस दौर की सभी हीरोइनों ने यह रोल करने से मना कर दिया अपनी इमेज खराब होने का वास्ता देकर


Tuesday, July 24, 2012

जुबली कुमार

पश्चिम पंजाब के शहर स्यालकोट (अब पाकिस्तान) मे जन्म हुआ था राजेंद्र कुमार तुली का (20 जुलाई 1929 - 12 जुलाई 1999) राजेंद्र कुमार बॉलीवुड के कुछ सबसे जयादा कामयाब अभिनेताओं मे से एक हैं। राजेन्द्र कुमार 1960 और 1970 के दशक की फिल्मों उन्होंने काम किया । फिल्मों मे अभिनय करने के अलावा उन्होने कई फिल्मों का निर्माण और निर्देशन भी किया जिनमे उनके पुत्र कुमार गौरव ने काम किया। स्यालकोट से बम्बई (मुंबई) तक का सफर उन्होंने उस घड़ी को बेचकर पूरा किया जो इनके वालिद ने दी थी,महज 21 साल की उम्र में फिल्म ‘जोगन’(1950 ) में काम किया, बतौर हीरो इनकी पहली फिल्म थी "गूंज उठी शहनाई’ (1959) 1950 और 1959 के बीच राजेंद्र कुमार ने
वचन (1955)तूफ़ान और दीया (1956) आवाज़ (1956) एक झलक (1957) मदर इंडिया (1957) तलाक (1958)खजांची (1958) घर संसार (1958) देवर भाभी ,संतान (1959) में काम किया पर मदर इंडिया (1957) के किरदार :रामू से उन्हें पहचाना जाने लगा और तभी ही उनकी दोस्ती हुई थी सुनील दत्त से जो बाद में रिश्तेदारी में बदल गयी,धूल का फूल (1959), दिल एक मंदिर (1963), मेरे महबूब (1963), संगम (1964), आरजू (1965), प्यार का सागर , गहरा दाग ', सूरज (1966) and तलाश 1969 ,गीत (1970 )उनकी जुबली फ़िल्में थी ,कई फ़िल्में के सिल्वर जुबली करने की वज़ह से उन्हें जुबली कुमार भी कहा जाता था ,अपने दौर के लगभग हर नायिका के साथ उन्होंने काम किया ,राजेंद्र कुमार को फिल्मफेयर पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता की श्रेणी में तीन बार नामांकन मिला, हालांकि उन्हें कभी यह पुरस्कार नहीं मिल पाया, दिल एक मंदिर (1963), आई मिलन की बेला (1964), संगम (1964)आरजू (1965), में बेहतरीन काम करने के बावजूद वो अवार्ड नहीं हासिल कर सके.संगम (१९६४) और मेरा नाम जोकर (1970 ) सिर्फ इसलिए की क्योंकि उनकी दोस्ती थी राज कपूर से राज कपूर अपनी बेटी की शादी राजेंद्र कुमार के बेटे कुमार गौरव से शादी करना चाहते थे पर कुमार गौरव ने अपने पिता की मर्जी के खिलाफ अपने पिता के दोस्त सुनील दत्त की बेटी नम्रता दत्त से शादी कर ली. राजेंद्र कुमार ने 1980 के दशक में अपने बेटे कुमार गौरव को फिल्म लव स्टोरी से अभिनय की दुनियां में उतारा.यह फिल्म काफी सफल रही, लेकिन गौरव लंबे समय तक कामयाब नहीं रहे, दिलीप कुमार, देव आनंद और राजकपूर की त्रिमूर्ती की बीच राजेंद्र कुमार ने अपनी जगह बनाई थी 1970 के दशक में राजेन्द्र कुमार के सिंहासन को राजेश खन्ना ने हिला दिया था,तब रूमानी और सामाजिक फिल्मों के किंग माने जाते थे राजेंद्र कुमार.राजेंद्र कुमार एक नेक दिल इंसान थे कई लोगों की उन्हें मदद की,भाई नरेश कुमार को निर्माता के रूप में मौका दिया,जीजा ओम प्रकाश रल्हन (फूल और पत्थर), (तलाश) की मदद की. फ़िल्मी दुनिया में विवाद भी ज़रूरी हैं,शादी शुदा हीरो राजेंद्र कुमार जो तीन बच्चों के बाप बन चुके थे 'आई मिलन की बेला'(1964)इस फिल्म में विलन थे धर्मेन्द्र,फिल्म की नायिका थी सायरा बानू यही से चर्चे शुरू हो गये थे राजेंद्र-सायरा के रोमांस के 'अमन' और 'झुक गया आसमान' में यह प्यार दिखाई भी दिया था, के. आसिफ की फिल्म 'सस्ता खून, महँगा पानी' में भी इस जोड़ी को लिया गया हालाकी यह फिल्म नहीं बन सकी थी.राजेंद्र-सायरा के रोमांस के किस्से फ़िल्मी किताबों में छपने लगे,जुबली कुमार की पत्नी शुक्ला, जो तीन बच्चों की माँ बन चुकी थीं परेशान हो गयी थी, तब के मोस्ट इलिजिबल बैचलर' दिलीप कुमार ने सायरा को शादीशुदा और बाल-बच्चेदार राजेंद्र कुमार से दूर रहने के लिए समझाया सायरा की माँ नसीम बानू भी इस रिश्ते से खुश नहीं थी,11 अक्टूबर 1966 को 25 साल की सायरा बानो की शादी 44 साल के दिलीप कुमार से हो गई थी,इसके बाद राजेंद्र कुमार का नाम किसी और हेरोइन के साथ नहीं जुडा. उनकी आख़िरी फिल्म थी अर्थ जो 1998 में रिलीज़ हुई थी.राजेंद्र कुमार को वर्ष 1969 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था. जीवन के आखिरी दिनों में वह कैंसर की चपेट में आ गए. 12 जुलाई, 1999 को भारतीय सिनेमा जगत के इस महान अभिनेता का निधन हो गया उनके ७०वे जन्मदिन २० जुलाई से आठ दिन पहले. आशीर्वाद बंगला इन्ही का कभी हुआ करता था, जिसको खरीदकर उसे राजेश खन्ना ने अपना आशियाना बनाया.  

‎"आशीर्वाद" यह बँगला राजेश खन्ना का महल था जिसे उन्होंने राजेंद्र कुमार से ख़रीदा था,इसका नाम था"डिम्पल" हाथी मेरे साथी" के दौरान जो भारी भरकम रकम राजेश खन्ना को मिली उस रकम से "डिम्पल को तोड़ कर नया बंगला बना उसका नाम "आशीर्वाद" रखा गया था, डिम्पल फिल्म्स के कागजों पर मालिक राजेंद्र कुमार के भाई नरेश कुमार थे,डिम्पल फिल्म्स के बैनर तले दस फ़िल्में बनीऔर यह सभी फ़िल्में कामयाब रही थी एक सपेरा एक लुटेरा (1965) हीरो फ़िरोज़ खान "हम तुम से जुदा होके मर जायेंगे रो रो के" ,हुस्न और इश्क (1966) हीरो संजीव कुमार, आग (1967) हीरो फ़िरोज़ खान, गंवार (1970) हीरो राजेंद्र कुमार,तांगेवाला (1972)हीरो राजेंद्र कुमार,गाँव हमारा शहर तुम्हारा (1972) हीरो राजेंद्र कुमार,दो जासूस हीरो राजेंद्र कुमार,राजकपूर,(1975) मजदूर जिंदाबाद (1976) हीरो राजेंद्र कुमार,सोने का दिल लोहे के हाथ (1978) हीरो राजेंद्र कुमार,गोपीचंद जासूस (1982)हीरो राज कपूर

वक्त ने किया क्या हंसी सितम....

गीतादत्त को गुज़रे 40 साल हो गये हैं,महज़ 42 साल की उम्र में दुनिया को उस वक्त अलविदा कहा जब उनके बच्चे छोटे थे,शौहर था उनकी ज़िन्दगी में जिसे उन्होंने कभी टूट कर चाहा था,शौहर दूसरी औरत के लिए पागल हो गया था,शौहर की खुदकुशी के बाद जिस दौलत और कम्पनी की मालियत उन्हें और उनके बच्चों को मिलनी थी वो सब कुछ उन्हें नहीं मिला शौहर के भाई सब ले गये,गम गलत करने के लिए शराब का सहारा लिया जब होश आया तीन बच्चों की ज़िम्मेदारी है उनके कन्धों पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी,1950 के मध्य से ही कुछ न कुछ वजहों से वो फ़िल्मी दुनिया से धीरे धीरे अलग हो रही थी.जिसने हरेक गाने को अपने अंदाज़ में गाया. नायिका, सहनायिका, खलनायिका, नर्तकी या रस्ते की बंजारिन, हर किसी के लिए अलग रंग और ढंग के गाने गाये. "नाचे घोड़ा नाचे घोड़ा, किम्मत इसकी बीस हज़ार मैं बेच रही हूँ बीच बाज़ार" आज से साठ साल पहले बना हैं और फिर भी तरोताजा हैं. "आज की काली घटा" सुनते हैं तो लगता है सचमुच बाहर बादल छा गए हैं. तब लोग कहते थे गीता गले से नहीं दिल से गाती थी! गीता दत्त का नाम ऐसी पा‌र्श्वगायिका के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने अपनी दिलकश आवाज की कशिश से लगभग तीन दशकों तक करोड़ों श्रोताओं को मदहोश किया। फिल्म जगत में गीता दत्त के नाम से मशहूर गीता घोष राय चौधरी महज 12 वर्ष की थी तब उनका पूरा परिवार फरीदपुर (अब बंगलादेश) से 1942 में बम्बई (अब मुंबई) आ गया। उनके पिता देबेन्द्रनाथ घोष रॉय चौधरी ज़मींदार थे ,गीता के कुल दस भाई बहन थे जमींदार थे। बचपन के दिनों से ही गीता राय का रूझान संगीत की ओर था और वह पा‌र्श्वगायिका बनना चाहती थी। गीता राय ने अपनी संगीत की प्रारंभिक शिक्षा हनुमान प्रसाद से हासिल की। 23 नवंबर 1930 में फरीदपुर शहर में जन्मी गीता राय को सबसे पहले वर्ष 1946 में फिल्म भक्त प्रहलाद के लिए गाने का मौका मिला। गीता राय ने कश्मीर की कली, रसीली, सर्कस किंग (1946) जैसी कुछ फिल्मो के लिए भी गीत गाए लेकिन इनमें से कोई भी बॉक्स आफिस पर सफल नही हुई। इस बीच उनकी मुलाकात महान संगीतकार एस डी बर्मन से हुई। गीता रॉय मे एस डी बर्मन को फिल्म इंडस्ट्री का उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने गीता राय से अपनी अगली फिल्म दो भाई के लिए गाने की पेशकश की। वर्ष 1947 में प्रदर्शित फिल्म दो भाई गीता राय के सिने कैरियर की अहम फिल्म साबित हुई और इस फिल्म में उनका गाया यह गीत मेरा सुंदर सपना बीत गया. लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। फिल्म दो भाई मे अपने गाये इस गीत की कामयाबी के बात बतौर पा‌र्श्वगायिका गीता राय अपनी पहचान बनाने में सफल हो गई। वर्ष 1951 गीता राय के सिने कैरियर के साथ ही व्यक्तिगत जीवन में भी एक नया मोड़ लेकर आया। फिल्म बाजी के निर्माण के दौरान उनकी मुलाकात निर्देशक गुरूदत्त से हुई। फिल्म के एक गाने तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले की रिर्काडिंग के दौरान गीता राय को देख गुरूदत्त फ़िदा हो गए। फिल्म बाजी की सफलता ने गीता राय की तकदीर बना दी और बतौर पा‌र्श्व गायिका वह फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गई। गीता राय भी गुरूदत्त से प्यार करने लगी। वर्ष 1953 में गीता राय ने गुरूदत्त से शादी कर ली। गीता राय से वो बन गयी थी गीता दत्त, साल 1956 गीता दत्त के सिने कैरियर में एक अहम पड़ाव लेकर आया। हावड़ा ब्रिज के संगीत निर्देशन के दौरान ओ पी नैयर ने ऐसी धुन तैयार की थी जो सधी हुयी गायिकाओं के लिए भी काफी कठिन थी। जब उन्होने गीता दत्त को "मेरा नाम चिन चिन चु" गाने को कहा तो उन्हे लगा कि वह इस तरह के पाश्चात्य संगीत के साथ तालमेल नहीं बिठा पायेंगी। लेकिन उन्होने इसे एक चुनौती की तरह लिया और इसे गाने के लिए उन्होंने पाश्चात्य गायिकाओ के गाये गीतों को भी बारीकी से सुनकर अपनी आवाज मे ढालने की कोशिश की और बाद में जब उन्होंने इस गीत को गाया तो उन्हें भी इस बात का सुखद अहसास हुआ कि वह इस तरह के गाने गा सकती है। गीता दत्त के पंसदीदा संगीतकार के तौर पर एस डी बर्मन का नाम सबसे पहले आता है 1गीता दत्त और एस डी बर्मन की जोड़ी वाली गीतो की लंबी फेहरिस्त में कुछ है .मेरा सुंदर सपना बीत गया (दो भाई- 1947), तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना दे (बाजी-1951), चांद है वही सितारे है वही गगन (परिणीता-1953), जाने क्या तुने सुनी जाने क्या मैने सुनी, हम आपकी आंखों मे इस दिल को बसा लें तो (प्यासा-1957), वक्त ने किया क्या हसीं सितम (कागज के फूल-1959) जैसे न भूलने वाले गीत शामिल है। गीता दत्त के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी संगीतकार ओ.पी.नैयर के साथ भी पसंद की गई। ओ पी नैयर के संगीतबद्ध जिन गीतों को गीता दत्त ने अमर बना दिया उनमें कुछ है, सुन सुन सुन जालिमा, बाबूजी धीरे चलना, ये लो मै हारी पिया, मोहब्बत कर लो जी भर लो, (आरपार-1954), ठंडी हवा काली घटा, जाने कहां मेरा जिगर गया जी, (मिस्टर एंड मिसेज 55-1955), आंखो हीं आंखो मे इशारा हो गया, जाता कहां है दीवाने (सीआईडी-1956), मेरा नाम चिन चिन चु (हावड़ा ब्रिज-1958), तुम जो हुये मेरे हमसफर (12ओ क्लाक-1958), जैसे न भूलने वाले गीत शामिल है।जिस साल फिल्म "दो भाई" प्रर्दशित हुई उसी साल फिल्मिस्तान की और एक फिल्म आयी थी जिसका नाम था शहनाई. दिग्गज संगीतकार सी रामचन्द्र ने एक फडकता हुआ प्रेमगीत बनाया था "चढ़ती जवानी में झूलो झूलो मेरी रानी, तुम प्रेम का हिंडोला". इसे गाया था खुद सी रामचंद्र, गीता रॉय और बीनापानी मुख़र्जी ने. कहाँ "दो भाई" के दर्द भरे गीत और कहाँ यह प्रेम के हिंडोले! गीतकार राजेंदर किशन की कलम का जादू हैं इस प्रेमगीत में जिसे संगीतबद्ध किया हैं सचिन देव बर्मन ने. "एक हम और दूसरे तुम, तीसरा कोई नहीं, यूं कहो हम एक हैं और दूसरा कोई नहीं". इसे गाया हैं किशोर कुमार और गीता रॉय ने फिल्म "प्यार" के लिए जो सन १९५० में आई थी. गीत फिल्माया गया था राज कपूर और नर्गिस पर."हम तुमसे पूंछते हैं सच सच हमें बताना, क्या तुम को आ गया हैं दिल लेके मुस्कुराना?" वाह वाह क्या सवाल किया हैं. यह बोल हैं अंजुम जयपुरी के लिए जिन्हें संगीतबद्ध किया था चित्रगुप्त ने फिल्म हमारी शान के लिए जो १९५१ में प्रर्दशित हुई थी. बहुत कम संगीत प्रेमी जानते हैं की गीता दत्त ने सबसे ज्यादा गीत संगीतकार चित्रगुप्त के लिए गाये हैं. यह गीत गाया हैं मोहम्मद रफी और गीता ने. रफी और गीता दत्त के गानों में भी सबसे ज्यादा गाने चित्रगुप्त ने संगीतबद्ध किये हैं.भले गाना पूरा अकेले गाती हो या फिर कुछ थोड़े से शब्द, एक अपनी झलक जरूर छोड़ देती थी. "पिकनिक में टिक टिक करती झूमें मस्तों की टोली" ऐसा युगल गीत हैं जिसमें मन्ना डे साहब और साथी कलाकार ज्यादा तर गाते हैं , और गीता दत्त सिर्फ एक या दो पंक्तियाँ गाती हैं. इस गाने को सुनिए और उनकी आवाज़ की मिठास और हरकत देखिये. ऐसा ही गाना हैं रफी साहब के साथ "ए दिल हैं मुश्किल जीना यहाँ" जिसमे गीता दत्त सिर्फ आखिरी की कुछ पंक्तियाँ गाती हैं. "दादा गिरी नहीं चलने की यहाँ.." जिस अंदाज़ में गाया हैं वो अपने आप में गाने को चार चाँद लगा देता हैं. ऐसा ही एक उदाहरण हैं एक लोरी का जिसे गीता ने गया हैं पारुल घोष जी के साथ. बोल हैं " आ जा री निंदिया आ", गाने की सिर्फ पहली दो पंक्तियाँ गीता के मधुर आवाज़ मैं हैं और बाकी का पूरा गाना पारुल जी ने गाया हैं.बात हो चाहे अपने से ज्यादा अनुभवी गायकों के साथ गाने की (जैसे की मुकेश, शमशाद बेग़म और जोहराजान अम्बलावाली) या फिर नए गायकोंके साथ गाने की (आशा भोंसले, मुबारक बेग़म, सुमन कल्याणपुर, महेंद्र कपूर या अभिनेत्री नूतन)! न किसी पर हावी होने की कोशिश न किसीसे प्रभावित होकर अपनी छवि खोना. अभिनेता सुन्दर, भारत भूषण, प्राण, नूतन, दादामुनि अशोक कुमार जी और हरफन मौला किशोर कुमार के साथ भी गाने गाये!चालीस के दशक के विख्यात गायक गुलाम मुस्तफा दुर्रानी के साथ तो इतने ख़ूबसूरत गाने गाये हैं मगर दुर्भाग्य से उनमें से बहुत कम गाने आजकल उपलब्ध हैं. ग़ज़ल सम्राट तलत महमूद के साथ प्रेमगीत और छेड़-छड़ भरे मधुर गीत गायें. इन दोनों के साथ संगीतकार बुलो सी रानी द्वारा संगीतबद्ध किया हुआ "यह प्यार की बातें यह आज की रातें दिलदार याद रखना" बड़ा ही मस्ती भरा गीत हैं, जो फिल्म बगदाद के लिए बनाया गया था. इसी तरह गीता ने तलत महमूद के साथ कई सुरीले गीत गायें जो आज लगभग अज्ञात हैं.जब वो गाती थी "आग लगाना क्या मुश्किल हैं" तो सचमुच लगता हैं कि गीता की आवाज़ उस नर्तकी के लिए ही बनी थी. गाँव की गोरी के लिए गाया हुआ गाना "जवाब नहीं गोरे मुखडे पे तिल काले का" (रफी साहब के साथ) बिलकुल उसी अंदाज़ में हैं. उन्ही चित्रगुप्त के संगीत दिग्दर्शन में उषा मंगेशकर के साथ गाया "लिख पढ़ पढ़ लिख के अच्छा सा राजा बेटा बन". और फिर उसी फिल्म में हेलन के लिए गाया "बीस बरस तक लाख संभाला, चला गया पर जानेवाला, दिल हो गया चोरी हाय..."! सन १९४९ में संगीतकार ज्ञान दत्त का संगीतबद्ध किया एक फडकता हुआ गीत "जिया का दिया पिया टीम टीम होवे" शमशाद बेग़म जी के साथ इस अंदाज़ में गाया हैं कि बस! उसी फिल्म में एक तिकोन गीत था "उमंगों के दिन बीते जाए" जो आज भी जवान हैं. वैसे तो गीता दत्त ने फिल्मों के लिए गीत गाना शुरू किया सन 1946 में, मगर एक ही साल में फिल्म दो भाई के गीतों से लोग उसे पहचानने लग गए. अगले पांच साल तक गीता दत्त, शमशाद बेग़म और लता मंगेशकर सर्वाधिक लोकप्रिय गायिकाएं रही. अपने जीवन में सौ से भी ज्यादा संगीतकारों के लिए गीता दत्त ने लगभग सत्रह सौ गाने गाये.अपनी आवाज़ के जादू से हमारी जिंदगियों में एक ताज़गी और आनंद का अनुभव कराने के लिए संगीत प्रेमी गीता दत्त को हमेशा याद रखेंगे.गीता रॉय (दत्त) ने एक से बढ़कर एक खूबसूरत प्रेमगीत गाये हैं मगर जिनके बारे में या तो कम लोगों को जानकारी हैं या संगीत प्रेमियों को इस बात का शायद अहसास नहीं है. इसीलिए आज हम गीता के गाये हुए कुछ मधुर मीठे प्रणय गीतों की खोज करेंगे. गीता दत्त और किशोर कुमार ने फिल्म मिस माला (१९५४)के लिए, चित्रगुप्त के संगीत निर्देशन में. "नाचती झूमती मुस्कुराती आ गयी प्यार की रात" फिल्माया गया था खुद किशोरकुमार और अभिनेत्री वैजयंती माला पर. रात के समय इसे सुनिए और देखिये गीता की अदाकारी और आवाज़ की मीठास. कुछ संगीत प्रेमियों का यह मानना हैं कि यह गीत उनका किशोरकुमार के साथ सबसे अच्छा गीत हैं. गौर करने की बात यह हैं कि गीता दत्त ने अभिनेत्री वैजयंती माला के लिए बहुत कम गीत गाये हैं. सन १९५५ में फिल्म सरदार का यह गीत बिनाका गीतमाला पर काफी मशहूर था. संगीतकार जगमोहन "सूरसागर" का स्वरबद्ध किया यह गीत हैं "बरखा की रात में हे हो हां..रस बरसे नील गगन से". उद्धव कुमार के लिखे हुए बोल हैं. "भीगे हैं तन फिर भी जलाता हैं मन, जैसे के जल में लगी हो अगन, राम सबको बचाए इस उलझन से".कुछ साल और पीछे जाते हैं सन १९४८ में. संगीतकार हैं ज्ञान दत्त और गाने के बोल लिखे हैं जाने माने गीतकार दीना नाथ मधोक ने. जी हाँ, फिल्म का नाम हैं "चन्दा की चांदनी" और गीत हैं "उल्फत के दर्द का भी मज़ा लो". १८ साल की जवान गीता रॉय की सुमधुर आवाज़ में यह गाना सुनते ही बनता है. प्यार के दर्द के बारे में वह कहती हैं "यह दर्द सुहाना इस दर्द को पालो, दिल चाहे और हो जरा और हो". लाजवाब! प्रणय भाव के युगल गीतों की बात हो रही हो और फिल्म दिलरुबा का यह गीत हम कैसे भूल सकते हैं? अभिनेत्री रेहाना और देव आनंद पर फिल्माया गया यह गीत है "हमने खाई हैं मुहब्बत में जवानी की कसम, न कभी होंगे जुदा हम". चालीस के दशक के मशहूर गायक गुलाम मुस्तफा दुर्रानी के साथ गीता रॉय ने यह गीत गाया था सन 1950 में. आज भी इस गीत में प्रेमभावना के तरल और मुलायम रंग हैं. दुर्रानी और गीता दत्त के मीठे और रसीले गीतों में इस गाने का स्थान बहुत ऊंचा हैं.गीतकार अज़ीज़ कश्मीरी और संगीतकार विनोद (एरिक रॉबर्ट्स) का "लारा लप्पा" गीत तो बहुत मशहूर हैं जो फिल्म "एक थी लड़की में" था. उसी फिल्म में विनोद ने गीता रॉय से एक प्रेमविभोर गीत गवाया. गाने के बोल हैं "उनसे कहना के वोह पलभर के लिए आ जाए". एक अद्भुत सी मीठास हैं इस गाने में. जब वाह गाती हैं "फिर मुझे ख्वाब में मिलने के लिए आ जाए, हाय, फिर मुझे ख्वाब में मिलने के लिए आ जाए" तब उस "हाय" पर दिल धड़क उठता हैं.सन १९४८ में पंजाब के जाने माने संगीतकार हंसराज बहल के लिए फिल्म "चुनरिया" के लिए गीता ने गाया था "ओह मोटोरवाले बाबू मिलने आजा रे, तेरी मोटर रहे सलामत बाबू मिलने आजा रे". एक गाँव की अल्हड गोरी की भावनाओं को सरलता और मधुरता से इस गाने में गीता ने अपनी आवाज़ से सजीव बना दिया है.सन 1950 में फिल्म "हमारी बेटी" के लिए जवान संगीतकार स्नेहल भाटकर (जिनका असली नाम था वासुदेव भाटकर) ने मुकेश और गीता रॉय से गवाया एक मीठा सा युगल गीत "किसने छेड़े तार मेरी दिल की सितार के किसने छेड़े तार". भावों की नाजुकता और प्रेम की परिभाषा का एक सुन्दर उदाहरण हैं यह युगल गीत जिसे लिखा था रणधीर ने.बावरे नैन फिल्म में संगीतकार रोशन को सबसे पहला सुप्रसिद्ध गीत (ख़यालों में किसी के) देने के बाद अगले साल गीता रॉय ने रोशन के लिए फिल्म बेदर्दी के लिए गाया "दो प्यार की बातें हो जाए, एक तुम कह दो, एक हम कह दे". बूटाराम शर्मा के लिखे इस सीधे से गीत में अपनी आवाज़ की जादू से एक अनोखी अदा बिखेरी हैं गीता रोय ने.पाश्चात्य धुन पर थिरकता हुआ एक स्वप्नील प्रेमगीत हैं फिल्म ज़माना (१९५७) से जिसके संगीत निर्देशक हैं सलील चौधरी और बोल हैं "दिल यह चाहे चाँद सितारों को छूले ..दिन बहार के हैं.." उसी साल प्रसिद्द फिल्म बंदी का मीठा सा गीत हैं "गोरा बदन मोरा उमरिया बाली मैं तो गेंद की डाली मोपे तिरछी नजरिया ना डालो मोरे बालमा". हेमंतकुमार का संगीतबद्ध यह गीत सुनने के बाद दिल में छा जाता है.संगीतकार ओमकार प्रसाद नय्यर (जो की ओ पी नय्यर के नाम से ज्यादा परिचित है) ने कई फिल्मों को फड़कता हुआ संगीत दिया. अभिनेत्री श्यामा की एक फिल्म आई थी श्रीमती ४२० (१९५६) में, जिसके लिए ओ पी ने एक प्रेमगीत गवाया था मोहम्मद रफी और गीता दत्त से. गीत के बोल है "यहाँ हम वहां तुम, मेरा दिल हुआ हैं गुम", जिसे लिखा था जान निसार अख्तर ने.आज के युवा संगीत प्रेमी शायद शंकरदास गुप्ता के नाम से अनजान है. फिल्म आहुती (1950) के लिए गीता राय ने शंकरदास गुप्ता के लिए युगल गीत गाया था "लहरों से खेले चन्दा, चन्दा से खेले तारे". उसी फिल्म के लिए और एक गीत इन दोनों ने गाया था "दिल के बस में हैं जहां ले जाएगा हम जायेंगे..वक़्त से कह दो के ठहरे बन स्वर के आयेंगे". एक अलग अंदाज़ में यह गीत स्वरबद्ध किया हैं, जैसे की दो प्रेमी बात-चीत कर रहे हैं. गीता अपनी मदभरी आवाज़ में कहती हैं -"चाँद बन कर आयेंगे और चांदनी फैलायेंगे"."दिल-ऐ-बेकरार कहे बार बार,हमसे थोडा थोडा प्यार भी ज़रूर करो जी". इस को गाया हैं गीता दत्त और गुलाम मुस्तफा दुर्रानी ने फिल्म बगदाद के लिए और संगीतबद्ध किया हैं बुलो सी रानी ने. जिस बुलो सी रानी ने सिर्फ दो साल पहले जोगन में एक से एक बेहतर भजन गीता दत्त से गवाए थे उन्हों ने इस फिल्म में उसी गीता से लाजवाब हलके फुलके गीत भी गवाएं. और जिस राजा मेहंदी अली खान साहब ने फिल्म दो भाई के लिखा था "मेरा सुन्दर सपना बीत गया" , देखिये कितनी मजेदार बाते लिखी हैं इस गाने में: दुर्रानी : मैं बाज़ आया मोहब्बत से, उठा लो पान दान अपना गीता दत्त : तुम्हारी मेरी उल्फत का हैं दुश्मन खानदान अपना दुर्रानी : तो ऐसे खानदान की नाक में अमचूर करो जी सचिन देव बर्मन ने जिस साल गीता रॉय को फिल्म दो भाई के दर्द भरे गीतों से लोकप्रियता की चोटी पर पहुंचाया उसी साल उन्ही की संगीत बद्ध की हुई फिल्म आई थी "दिल की रानी". जवान राज कपूर और मधुबाला ने इस फिल्म में अभिनय किया था. उसी फिल्म का यह मीठा सा प्रेमगीत हैं "आहा मोरे मोहन ने मुझको बुलाया हो". इसी फिल्म में और एक प्यार भरा गीत था "आयेंगे आयेंगे आयेंगे रे मेरे मन के बसैय्या आयेंगे रे". और अब आज की आखरी पेशकश है संगीतकार बुलो सी रानी का फिल्म दरोगाजी (१९४९) के लिया संगीतबद्ध किया हुआ प्रेमगीत "अपने साजन के मन में समाई रे". बुलो सी रानी ने इस फिल्म के पूरे के पूरे यानी 12 गाने सिर्फ गीता रॉय से ही गवाए हैं. अभिनेत्री नर्गिस पर फिल्माया गया यह मधुर गीत के बोल हैं मनोहर लाल खन्ना (संगीतकार उषा खन्ना के पिताजी) के. गीता की आवाज़ में लचक और नशा का एक अजीब मिश्रण है जो इस गीत को और भी मीठा कर देता हैं. वर्ष 1957 मे गीता दत्त और गुरूदत्त की विवाहित जिंदगी मे दरार आ गई। गुरूदत्त ने गीता दत्त के काम में दखल देना शुरू कर दिया। वह चाहते थे गीता दत्त केवल उनकी बनाई फिल्म के लिए ही गीत गाये। काम में प्रति समर्पित गीता दत्त तो पहले इस बात के लिये राजी नही हुयी लेकिन बाद में गीता दत्त ने किस्मत से समझौता करना ही बेहतर समझा। धीरे-धीरे अन्य निर्माता निर्देशको ने गीता दत्त से किनारा करना शुरू कर दिया। कुछ दिनो के बाद गीता दत्त अपने पति गुरूदत्त के बढ़ते दखल को बर्दाशत न कर सकी और उसने गुरूदत्त से अलग रहने का निर्णय कर लिया। इस बात की एक मुख्य वजह यह भी रही कि उस समय गुरूदत्त का नाम अभिनेत्री वहीदा रहमान के साथ भी जोड़ा जा रहा था जिसे गीता दत्त सहन नही कर सकी। गीता दत्त से जुदाई के बाद गुरूदत्त टूट से गये और उन्होंने अपने आप को शराब के नशे मे डूबो दिया। दस अक्तूबर 1964 को अत्यधिक मात्रा मे नींद की गोलियां लेने के कारण गुरूदत्त इस दुनियां को छोड़कर चले गए। गुरूदत्त की मौत के बाद गीता दत्त को गहरा सदमा पहुंचा और उसने भी अपने आप को नशे में डुबो दिया। गुरूदत्त की मौत के बाद उनकी निर्माण कंपनी उनके भाइयो के पास चली गयी। गीता दत्त को न तो बाहर के निर्माता की फिल्मों मे काम मिल रहा था और न ही गुरूदत्त की फिल्म कंपनी में। इसके बाद गीता दत्त की माली हालत धीरे धीरे खराब होने लगी। कुछ वर्ष के पश्चात गीता दत्त को अपने परिवार और बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास हुआ तरुण ( 1954), अरुण (1956),और नीना ( 1962) का भविष्य उनके सामने था और वह पुन: फिल्म इंडस्ट्री में अपनी खोयी हुयी जगह बनाने के लिये संघर्ष करने लगी। "मंगेशकर बैरियर" भी सामने था लिहाज़ा वो दुर्गापूजा में होने वाले स्टेज कार्यकर्मों के लिए गा कर गुज़र बसर करने लगी,ज़मींदार घराने की गीता दत्त के आख़िरी दिन मुफलिसी में गुज़रे ,1967 में रिलीज़ बंग्ला फिल्म बधू बरन में गीता दत्त को काम करने का मौका मिला जिसकी कामयाबी के बाद गीता दत्त कुछ हद तक अपनी खोयी हुयी पहचान बनाने में सफल हो गई। हिन्दी के अलावा गीता दत्त ने कई बांग्ला फिल्मों के लिए भी गाने गाए। इनमें तुमी जो आमार (हरनो सुर-1957), निशि रात बाका चांद (पृथ्वी आमार छाया-1957), दूरे तुमी आज (इंद्राणी-1958), एई सुंदर स्वर्णलिपि संध्या (हॉस्पिटल-1960), आमी सुनचि तुमारी गान (स्वरलिपि-1961) जैसे गीत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय है। सत्तर के दशक में गीता दत्त की तबीयत खराब रहने लगी और उन्होंने एक बार फिर से गीत गाना कम कर दिया। 1971 में रिलीज़ हुई अनुभव में गीता दत्त ने तीन गीत गाये थे,संगीतकार थे कनु राय " कोई चुपके से आके" "मेरा दिल जो मेरा होता ""मेरी जान मुझे जान न कहो" इस फिल्म में काम करने के बाद वो बीमार रहने लगी:आखिकार 20 जुलाई 1972 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया ।

मनोज कुमार

मनोज कुमार का असली नाम नाम हरिकिशन गिरी गोस्वामी है मनोज कुमार का जन्म 24 जुलाई 1937 में एट्वाबाद(अब पकिस्तान) में हुआ था जब वह महज दस वर्ष के थे बटवारें की वज़ह से उनका पूरा परिवार राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में आकर बस गया। बचपन के दिनों में मनोज कुमार ने दिलीप कुमार की फिल्म शबनम देखी थी। फिल्म में दिलीप कुमार के किरदार का नशा मनोज कुमार पर चढ़ गया कि उन्होंने भी फिल्म अभिनेता बनने का फैसला कर लिया। मनोज कुमार ने अपनी स्नातक की शिक्षा दिल्ली के मशहूर हिंदू कॉलेज से पूरी की। इसके बाद बतौर अभिनेता बनने का सपना लेकर वह मुंबई आ गये। बतौर अभिनेता मनोज कुमार ने अपने सिने करियर की शुरू आत वर्ष 1957 में रिलीज़ फिल्म फैशन से की। कमजोर पटकथा और निर्देशन के कारण फिल्म टिकट खिड़की पर बुरी तरह से नकार दी गयी।हिंदी फिल्म जगत में मनोज कुमार को एक ऐसे बहुआयामी कलाकार के तौर पर जाना जाता है जिन्होंने फिल्म निर्माण की प्रतिभा के साथ-साथ निर्देशन,लेखन,संपादन और बेजोड अभिनय से भी दर्शकों के दिल में अपनी खास पहचान बनायी है। वर्ष 1957 से 1962 तक मनोज कुमार फिल्म इंडस्ट्री मे अपनी जगह बनाने के लिये संघर्ष करते रहे। फिल्म फैशन के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उसे स्वीकार करते चले गये। इस बीच उन्होंने कांच की गुड़िया,रेशमी रूमाल,सहारा,पंयायत,सुहाग सिंदूर,हनीमून,पिया मिलन की आस जैसी कई बी ग्रेड फिल्मों मे अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बाक्स आफिस पर सफल नहीं हुयी। मनोज कुमार के अभिनय का सितारा निर्माता-निर्देशक विजय भट्ट की वर्ष 1962 में प्रदर्शित क्लासिक फिल्म हरियाली और रास्ता से चमका। फिल्म में उनकी नायिका की भूमिका माला सिन्हा ने निभायी। बेहतरीन गीत-संगीत और अभिनय से सजी इस फिल्म की कामयाबी ने मनोज कुमार को स्टार के रूप में स्थापित कर दिया। आज भी इस फिल्म के सदाबहार गीत दर्शकों और श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। वर्ष 1964 में मनोज कुमार की एक और सुपरहिट फिल्म वह कौन थी प्रदर्शित हुई। फिल्म में उनकी नायिका की भूमिका साधना ने निभायी। बहुत कम लोगों को पता होगा कि फिल्म के निर्माण के समय अभिनेत्री के रूप में निम्मी का चयन किया गया था लेकिन निर्देशक राज खोसला ने निम्मी की जगह साधना का चयन किया। रहस्य और रोमांच से भरपूर इस फिल्म में साधना की रहस्यमय मुस्कान के दर्शक दीवाने हो गये। साथ ही फिल्म की सफलता के बाद राज खोसला का निर्णय सही साबित हुआ। साल 1965 में मनोज कुमार की सुपरहिट फिल्म गुमनाम और दो बदन भी रिलीज़ हुई। इस फिल्म में रहस्य और रोमांस के ताने-बाने से बुनी,मधुर गीत,संगीत और ध्वनि के कल्पनामय इस्तेमाल किया गया था। इस फिल्म में हास्य अभिनेता महमूद पर फिल्माया यह गाना’हम काले है तो क्या हुआ दिलवाले है’ दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था। साल 1965 में मनोज कुमार शहीद में भगत सिंह के किरदार में नजर आये, वर्ष 1967 में रिलीज़ फिल्म उपकार से मनोज कुमार निर्र्मता निर्देशक बने यह फिल्म स्व.प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री के जय जवान जय किसान के नारे पर आधारित थी, मनोज कुमार ने किसान की भूमिका के साथ ही जवान की भूमिका में भी दिखाई दिये। फिल्म में उनके चरित्र का नाम "भारत" था बाद में भारत कुमार के नाम फिल्म इंडस्ट्री में मशहूर हो गये। फिल्म में कल्याणजी आंनद जी के संगीत निर्देशन में पार्श्वगायक महेन्द्र कपूर की आवाज में गुलशन बावरा रचित यह गीत ‘मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरा-मोती’ श्रोताओं के बीच आज भी शिद्धत के साथ सुने जाते है। वर्ष 1970 में मनोज कुमार के निर्माण और निर्देशन में बनी एक और सुपरहिट फिल्म पूरब और पश्चिम प्रदर्शित हुयी। फिल्म के जरिये मनोज कुमार ने एक ऐसे मुद्दे को उठाया जो दौलत के लालच में अपने देश की मिट्टी को छोड़कर पश्चिम में पलायन करने को मजबूर है। वर्ष 1972 में मनोज कुमार के सिने करियर की एक और महत्वपूर्ण फिल्म शोर प्रदर्शित हुई। वर्ष 1974 में प्रदर्शित फिल्म रोटी कपड़ा और मकान मनोज कुमार के करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में शुमार की जाती है। वर्ष 1976 में प्रदर्शित फिल्म दस नंबरी की सफलता के बाद मनोज कुमार ने लगभग पांच वर्षो तक फिल्म इंडस्ट्री से किनारा कर लिया। वर्ष 1981 में मनोज कुमार ने फिल्म क्रांति के जरिये अपने सिने करियर की दूसरी पारी शुरू की। मनोज कुमार ने अपने दौर के सभी नायकों और नायिकाओं के साथ काम किया,राजेंद्र कुमार और राजेश खन्ना के दौर में भी वो कामयाब रहे,1962 से लेकर 1981 तक सुपर हिट फ़िल्में देते रहे 1970 में पूरब और पश्चिम,यादगार,पहचान,1972 शोर, बेईमान,1974,रोटी कपडा और मकान 1975 सन्यासी,1976 द्स नम्बरी,1981 क्रांतिजैसी हिट फिल्मों में काम किया,मनोज कुमार अपने सिने करियर में सात फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किये गये है। वर्ष 1967 में प्रदर्शित फिल्म उपकार के लिये उन्हें सर्वाधिक चार फिल्म फेयर पुरस्कार दिये गये जिनमें सर्वश्रेष्ठ फिल्म,निर्देशन,कहानी और डॉयलग का पुरस्कार शामिल है। इसके बाद वर्ष 1971 में प्रदर्शित फिल्म बेईमान,सर्वश्रेष्ठ अभिनेता 1974 में प्रदर्शित फिल्म रोटी कपड़ा और मकान,सर्वश्रेष्ठ निर्देशक,वर्ष 1998 में लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से भी मनोज कुमार को सम्मानित किया गया। साल 2004 में वे शिव सेना में शामिल हो गये थे मनोज कुमार के दो बेटे है विशाल जो गायक हैं दुसरे बेटे कुनाल ने कई फिल्मों में काम किया पर वे कामयाब नहीं हो सके, क्रांति के बाद उन्हें वो कामयाबी नहीं मिल सकी लिहाज़ा वो फिल्मों से दूर गये,अब्बा,नाना,दादा के रोल भी नहीं किये,उनकी फ़िल्में थी,1957 फैशन,पंचायत,1958 सहारा,1959 चाँद,1960 हनी मून,सुहाग सिन्दूर 1961 कांच की गुडिया, रेशमी रुमाल, 1962 हरियाली और रास्ता,डॉ विद्या,शादी,बनारसी ठग,माँ बेटा,पिया मिलन की आस,नकली नबाव,1963 अपना बना के देखो ,घर बसा के देखो ,ग्रहस्ती अपने हुए पराये 1964वोह कौन थी फूलों की सेज,१९६५ शहीद , हिमालय की गोद में,गुमनाम ,पूनम की रात,1966 दो बदन सावन की घटा,साजन,1967 पत्थर के सनम,अनीता,उपकार,1968 नील कमल,आदमी,1970 पूरब और पश्चिम ,मेरा नाम जोकर,यादगार,पहचान,1972 शोर,बेईमान,1974,रोटी कपडा और मकान 1975 सन्यासी,1976 द्स नम्बरी,1981 क्रांति,1987 कलयुग और रामायण 1989 संतोष,क्लर्क,1995मैदान-ऐ,जंग.

Friday, July 20, 2012

.................रूमी गेट.....................


में हूँ रूमी गेट मेरी तामीर नवाब आसिफुद्दौला मिर्ज़ा मोहम्मद याहिया खान ने जो सन 1775 ईस्वी से 1797 ईस्वी तक अवध के ताजदार थे ने करवाया था,ब़डा इमामबाड़ा, नौबत खाना,शाही वाबली,आसिफी मस्जिद और भूलभुलैया यह सब मेरे ही सामने बने. नवाब आसिफुद्दौला ने ईरान में बने ऐसे ही गेट के तर्ज़ पर मुझे तामीर किये जाने का फरमान हाफिज़ किफ़ायत उल्लाह के नाम जारी कर दिया,लखोरी इंटों के साथ चूने का प्लास्टर मुझ पर किया गया,मेरी वास्तु कला में हिन्दू मुस्लिम दोनों कलाओं का संगम है,सुंदर,मेहराबों और गुलदस्तों की कड़ीयों से मुझे सजाया गया है. मेने इतिहास को बनते देखा है मच्छी भवन किला मेरी आखों के सामने तोड़ा गया मच्छी भवन कब्रिस्तान आज़ मी है मुझे याद है वो ज़माना जब गल्ला रुपये का आठ सेर बिकता था तब रूमी दरवाज़े यानि मेरे साये में बाज़ार हुआ करती थी तब व्यापारी हिन्दू जब  दुकानें रवोलते थे तो नवाब आसिफुद्दौला का नाम लेते थे.
मुझे याद है ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौजें ने आलमबाग फ़तेह कर ने के बाद शाही दरवाज़े पर जाने कितने क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया था. आलमबाग, आलमनगर, धनिया मेहरी का पुल, मूसाबाग होकर मेरे सामने से निकला था अंग्रेजों का लश्कर और उनका निशाना था शाह नज़फ़ इमामबाड़ा - जहाँ क्रांतिकारियों ने ज़बरदस्त मोर्चा लगाया था.शाह नज़फ़ फ़तेह हुआ सिकंदरबाग़ पर जंग हुई सिकंदरबाग़ भी फ़तेह हुआ फिर चनों की बाज़ार जिसे तब चनों का हाट कहा जाता था यानि आज का चिनहट में भी ईस्ट इंडिया कम्पनी की फोज जीत गयी.
1857 से लेकर 1887 तक अंग्रेजों ने मुझ पर अपना कब्ज़ा बनाए रखा,और 15 अगस्त 1947 को बटवारें के बाद भारत को आज़ादी मिली बटवारें का गम आज़ादी की खुशी,और अब तक मेरे जिम्मेदारी हुसेनाबाद एलाइड ट्रस्ट को सौप दी गयी और ऐ.एस.आई को रख रखाव की.पर यह न थी मेरी किस्मत, मेरी हिफाज़त के इंतज़ाम सिर्फ और सिर्फ कागजों पर होता रहा,और मुझे कुछ साल शराबियों,गांजा पीने वालों के सात गुजरने पड़े,पर वो साल कितना अच्छा था जब पर्यटन विभाग ने 60 लाख रूपये खर्च कर डाले और नीचे से लेकार उपर तक रोशनी कर डाली,मुझे याद है वो दौर जब यहाँ बंजर जमीन ,टीले हुआ करते थे और मकानात के नाम पर कुछ कच्चे घर और झोपड़ियाँ हुआ करती थी और तब देखते ही देखते यहिया गंज  फ़तेहगंज ,वजीरगंज,रकाबगंज,मोलवीगंज,दौलतगंज,तिकेतगंज,अलीगंज,हुसैनगंज,हसनगंज,मुंशीगंज,लाहोर गंज,भवानीगंज,निवाज गंज गोलागंज ,चारबाग,ऐशबाग,बाद्शाहबाग यह सब मेरे ही सामने बने.
जिस लखनऊ को मेने बनते देखा था उसी लखनऊ के कुछ लोगों से मेरी यह खुशी नहीं देखी गयी,लोग आते थे मुझे देखने के बहाने और लाईट और तार खोल कर ले जाने लगे और एक दिन फिर में डूब गया अन्धेरें में और इसी साल मेरे सीने पर ताला जड दिया गया साल 2002 में प्रदूषण का असर मुझ पर हो गया था,मुझमे दरारे पड़नी शुरू हो गयी थी,तब हुक्मरानों ने तय किया की भारी वाहन यहाँ से होकर नहीं गुजरेंगे कुछ दिन तो इस फरमान पर अमल हुआ फिर भूल गये ....

..........फांसी दरवाज़ा.........

लखनऊ के आलम बाग़ का इलाका जो कभी अवध के बादशाह वाजिद अली शाह ने अपनी बेगम "आलम आरा" के लिए बनवाया था, तब इस का नाम का महल आलम बाग़ था.बेगम आलम आरा के नाम पर लखनऊ में एक रेलवे स्टेशन है जिसका नाम है आलम नगर.आलमबाग के चंदर नगर इलाके में आलमबाग महल के कुछ खंडहर अभी मौजूद हैं,मेजर हैवलक की कब्र भी यहाँ मौजूद है, आलमबाग महल को मिटा कर 1947 के बाद रिफ्यूजी कालोनी बसाई गयी जिसे "चंदर नगर का नाम मिला, आलमबागमहल में दाखिल होने के लिए सदर दरवाज़ा था जिसे 1857 के बाद "फांसी दरवाज़ा" कहा जाने लगा,1857 की जंगे आजादी में अंग्रेजों के खिलाफ बड़ा मोर्चा यहाँ खोला गया और बामुश्किल अंग्रेज़ी फौज महल पर कब्ज़ा कर सकी तब अंग्रेज़ी फौज के ज़नरल "औरटम"व मेजर हैवलक ने यहाँ ना जाने कितने क्रांतिकारियों को फांसी पर लटकवा दियाथा,दरअसल इस महल के सदर दरवाज़े की बनावट कुछ ऐसी थी की भारतीय सैनिक यहाँ बने कमरों में रह कर दरवाज़े की दीवारों पर बने सुराखों से दुश्मन पर नज़र रखते थे और दुश्मन पर गोलियां भी चलाते थे.आज शाही दरवाज़े\फांसी दरवाज़े का नाम है "चंदर नगर गेट" और आज यहाँ मौजूद है बिरयानी की दुकान है,सब्जी मंडी,प्लास्टिक का सामान बेचने वाले, पी.सी.ओ.ऐ.टी.एम सभी कुछ है यहाँ.
महल आलम बाग़ के इस दरवाज़े की तामीर हुई 1847 से 1857 के बीच में.इस दरवाज़े की नाप है 17X13 मीटर दरवाज़े बीच में आने जाने के लिए 3X5 मीटर चौड़ी खुली जगह भी है और कुल उंचाई है करीब 11 मीटर,सुन्दर मेहराबों,शाखों,के साथ दो मछलियाँ भी बनी है, दरवाज़े को बंद करने के देवदार की लकड़ी के सुन्दर पल्ले बनाये गये थे अब दो के बजाये एक ही पल्ला यहाँ मौजूद हैं,चार मेहराबों पर बनी इस दरवाज़े की छत धन्नीयों पर टिकी है उपर जाने के लिए दोनों तरफ ज़ीने है जहाँ सिपाहियों के लिए कमरे बनाए गये थे, दरवाज़े में कई सुराख़ है यह सुराख़ थे दुश्मनों पर निगाह रखने के लिए.
इतिहास के पन्नों में शाही दरवाज़ा या फांसी दरवाज़े के नाम से इस जगह को जाना जाता है ना की चंदर नगर गेट के नाम से, 1947 के बाद चंदर नगर के नाम से कालोनी बनी और गेट का नाम भी बदल दिया गया मेजर हैवलक की कब्र की रक्षा आज भी राज्य पुरात्व विभाग कर रहा है जो इसी इलाके में है, मेजर हैवलक के नाम पर रोड भी थी लखनऊ में जिसका नाम बदला जा चुका है उसे अब सरोजनी नायडू मार्ग के नाम से जाना जाता है.उधर आलमबाग़ महल के इस एतहासिक धरोहर की रक्षा करना तो दूर इस नाम ही बदल डाला.

ब्यूटी क्वीन नसीम बानू

भारतीय सिने जगत में अपनी दिलकश अदाओं से दर्शकों को दीवाना बनाने वाली अभिनेत्रियों की संख्या यू तो बेशुमार है लेकिन चालीस के दशक में एक अभिनेत्री ऐसी हुयी। जिसे ब्यूटी क्वीन कहा जाता था और आज के सिने प्रेमी शपायद ही उसे जानते हों, वह अभिनेत्री थीं नसीम बानू 4 जुलाई 1916 को को जन्मी नसीम बानू की परवरिश शाही ढग़ से हुयी थी। वह स्कूल पढऩे के लिए पालकी से जाती थीं। नसीम बानू की सुंदरता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें किसी की नजर न लग जाए इसलिये उन्हें पर्दे में रखा जाता था। फिल्म जगत में नसीम बानू का प्रवेश संयोगवश हुआ। एक बार नसीम बानो अपनी स्कूल की छुटियों के दौरान अपनी मां के साथ फिल्म सिल्वर किंग की शूटिंग देखने गयीं। फिल्म की शूटिंग देखकर नसीम बानू मंत्रमुग्ध हो गयीं और उन्होंने निश्चय किया कि वह अभिनेत्री के रुप में अपना सिने करियर बनायेंगी। इधर स्टूडियों में नसीम बानू की सुंदरता को देख कई फिल्मकारों ने नसीम बानू के सामने फिल्म अभिनेत्री बनने का प्रस्ताव रखा लेकिन उनकी मां ने यह कहकर सभी प्रस्ताव ठुकरा दिये कि नसीम अभी बच्ची है। नसीम की मां उन्हें अभिनेत्री नहीं बल्कि डॉक्टर बनाना चाहती थीं। इसी दौरान फिल्म निर्माता सोहराब मोदी ने अपनी फिल्म ‘हेमलेट' के लिये बतौर अभिनेत्री नसीम बानू को काम करने के लिए प्रस्ताव दिया और इस बार भी नसीम बानू की मां ने इंकार कर दिया लेकिन इस बार नसीम अपनी जिद पर अड़ गयी कि उन्हें अभिनेत्री बनना ही है। इतना ही नहीं उन्होंने अपनी बात मनवाने के लिये भूख हडताल भी कर दी । 70 के दशक में उनकी पहचान सायरा बानू की माँ के रूप में बनी,गोपी के बाद वो दिलीप कुमार की सास के रूप में जानी गयी, कभी दिलीप कुमार के साथ फिल्मों में हेरोइन बन कर आने वाली नसीम बानू 1970 में दिलीप कुमार की सास बनी,नसीम बानू ने अभिनय के बाद 1960 में रिलीज़ सायरा बानू की पहली फिल्म जंगली से ड्रेस डिजायनिंग का काम किया सिर्फ अपनी बेटी की ही फिल्मों में 18 जून 2002 को मुबई में 83 साल की उम्र में स्वर्गवास हो गया था.नसीम बानू ने सोहराब मोदी की कई फिल्मों में काम किया था खून का खून 1935,तलाक 1938,पुकार 1939 उजाला 1942,चल चल रे नौज़वान 1944 ,बेगम 1945 ,दूर चलें 1946 ,जीवन आशा 1946 ,अनोखी अदा 1948 ,चांदनी रात 1949 , शीश महल 1950 ,शबिस्तान 1951 ,अजीब लड़की 1952 ,बागी 1953 , नौशेर्वाने आदिल 1957 काला बाज़ार 1960 ,हौली डे इन बॉम्बे 1963 नबाव सिराज़ुद्दौल्ला 1967 ,पाकीज़ा 1972 कभी कभी 1976

हरि भाई ज़रीवाला

महान कलाकार हरि भाई ज़रीवाला उर्फ संजीव कुमार का नाम फिल्मजगत की आकाशगंगा में एक ऐसे धुव्रतारे की तरह याद किया जाता है जिनके बेमिसाल अभिनय से सुसज्जित फिल्मों की रोशनी से बॉलीवुड हमेशा जगमगाता रहेगा.वे मूल रूप से गुजराती थे। उन्होंने नया दिन नयी रात फिल्म में नौ रोल किये थे। कोशिश फिल्म में उन्होंने गूंगे बहरे व्यक्ति का शानदार अभिनय किया था। शोले फिल्म में ठाकुर का चरित्र उनके अभिनय से अमर हो गया। संजीव कुमार का जन्म मुंबई में 9 जुलाई 1938 को एक मध्यम वर्गीय गुजराती परिवार में हुआ था। इनका असली नाम हरि भाई ज़रीवाला था. इनका पैतृक निवास सूरत था, बाद में इनका परिवार मुंबई आ गया. वह बचपन से हीं फिल्मों में बतौर अभिनेता काम करने का सपना देखा करते थे। फिल्म के प्रति जुनून इन्हें भारतीय फिल्म उद्योग ले आया. अपने जीवन के शुरूआती दौर मे रंगमंच से जुड़े और बाद में उन्होंने फिल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाखिला लिया। इसी दौरान वर्ष 1960 में उन्हें फिल्मालय बैनर की फिल्म हम हिन्दुस्तानी में एक छोटी सी भूमिका निभाने का मौका मिला। जहाँ ये एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता बने. ये आजीवन कुंवारे रहे और मात्र 47 वर्ष की आयु में 6 नवम्बर 1985 को हृदय गति के रुक जाने से इनकी मृत्यु हुई. ये अपने व्यव्हार, विशिष्ट अभिनय शैली के लिए जाने जाते है. संजीव कुमार ने विवाह नहीं की परन्तु प्रेम कई बार किया था. इनका नाम हेमा मालिनी और सुलक्षना पंडित के साथ जुड़ा, इन्हें यह अन्धविश्वास था की इनके परिवार में बड़े पुत्र के 10 वर्ष का होने पर पिता की मृत्यु हो जाती है. इनके दादा, पिता, और भाई के साथ यह हो चुका था. संजीव कुमार ने अपने दिवंगत भाई के बेटे को गोद लिया और उसके दस वर्ष का होने पर उनकी मृत्यु हो गयी ! संजीव कुमार भोजन के बहुत शौक़ीन थे. बीस वर्ष की आयु में गरीब माध्यम वर्ग के इस युवा ने रंगमच में कम करना शुरू किया. इन्होने छोटी भूमिकाओ से कोई परहेज नहीं किया. एच.अस.रवैल की 'संघर्ष' में दिलीप कुमार की बाँहों में दम तोड़ने का दृश्य इतना शानदार किया की अभिनय सम्राट भी सकते में आ गए. सितारा हो जाने के बावजूद भी उन्होंने कभी नखरे नहीं किये. इन्होने जया बच्चन के स्वसुर, प्रेमी, पिता, पति की भूमिकाएँ भी निभाई. जब लेखक सलीम ख़ान ने इनसे त्रिशूल में अपने समकालीन अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के पिता की भूमिका निभाने का अगढ़ किया तो उन्होंने बेझिजक यह भूमिका इस शानदार ढंग से निभाई की उन्हें ही केंद्रीय पत्र मान लिया गया. इन्होंने बीस वर्ष की आयु में वृद्ध आदमी की भूमिका इतनी खूबी से निभाई कि पृथ्वीराज कपूर देखकर दंग रह गए.संजीव कुमार ने अपने करिअर की शुरुआत 1960 में बनी फिल्म हम हिन्दुस्तानी में दो मिनट की छोटी-सी भूमिका से की। वर्ष 1962 में राजश्री प्रोडक्शन की निर्मित फिल्म आरती के लिए उन्होंने स्क्रीन टेस्ट दिया जिसमें वह पास नही हो सके। इसके बाद उन्हें कई बी-ग्रेड फिल्में मिली। इन महत्वहीन फिल्मों के बावजूद अपने अभिनय के जरिये उन्होंने सबका ध्यान आकर्षित किया। सर्वप्रथम मुख्य अभिनेता के रूप में संजीव कुमार को वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म निशान में काम करने का मौका मिला। वर्ष 1960 से वर्ष 1968 तक संजीव कुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फिल्म हम हिंदुस्तानी के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने स्मगलर, पति-पत्नी, हुस्न और इश्क, बादल, नौनिहाल और गुनहगार जैसी कई फिल्मों में अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई। वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म शिकार में वह पुलिस ऑफिसर की भूमिका में दिखाई दिए। यह फिल्म पूरी तरह अभिनेता धर्मेन्द्र पर केन्द्रित थी फिर भी सजीव कुमार धर्मेन्द्र जैसे अभिनेता की उपस्थिति में अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें सहायक अभिनेता का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म संघर्ष में उनके सामने हिन्दी फिल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे लेकिन संजीव कुमार अपनी छोटी सी भूमिका के जरिए दर्शकों की वाहवाही लूट ली। इसके बाद आशीर्वाद, राजा और रंक, सत्याकाम और अनोखी रात जैसी फिल्मों में मिली कामयाबी के जरिए संजीव कुमार दर्शकों के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुंच गए जहां वह फिल्म में अपनी भूमिका स्वयं चुन सकते थे। वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म खिलौना की जबर्दस्त कामयाबी के बाद संजीव कुमार बतौर अभिनेता अपनी अलग पहचान बना ली। वर्ष 1970 में ही प्रदर्शित फिल्म दस्तक में उनके लाजवाब अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित कि या गया। वर्ष 1972 में प्रदर्शित फिल्म कोशिश में उनके अभिनय का नया आयाम दर्शकों को देखने को मिला। फिल्म कोशिश में गूंगे की भूमिका निभाना किसी भी अभिनेता के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी। बगैर संवाद बोले सिर्फ आंखों और चेहरे के भाव से दर्शकों को सब कुछ बता देना संजीव कुमार की अभिनय प्रतिभा का ऐसा उदाहरण था जिसे शायद ही कोई अभिनेता दोहरा पाए। इन्होंने दिलीप कुमार के साथ संघर्ष (1968) फिल्म में काम किया. फिल्म खिलौना ने इन्हें स्टार का दर्जा दिलाया. इसके बाद इनकी हिट फिल्म सीता और गीता (1972) और मनचली (1973) प्रदर्शित हुईं.70 के दशक में इन्होने गुलज़ार जैसे दिग्दर्शक के साथ काम किया. इन्होने गुलज़ार के साथ कुल 9 फिल्मे की जिनमे आंधी (1975), मौसम (1975), अंगूर (1982), नमकीन (1982) प्रमुख है. इनके कुछ प्रशंसक इन फिल्मों को इनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मो में से मानते है. फिल्म शोले (1975) में इनसे अभिनीत पात्र ठाकुर आज भी लोगो के दिलो में ज़िंदा है जो मिमिक्री कलाकारों के लिए एक मसाला है.संजीव कुमार के दौर में राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, शम्मी कपूर, दिलीप कुमार जैसे अभिनेता छाए हुए थे, लेकिन अपने सशक्त अभिनय से उन्होंने अपना स्थान बनाया।

वर्ष फ़िल्म
1993 प्रोफेसर की पड़ोसन रिलीज़ मृत्यु के बाद
1987 राही रिलीज़ मृत्यु के बाद
1986 कत्ल रिलीज़ मृत्यु के बाद
1986 काँच की दीवार रिलीज़ मृत्यु के बाद
1986 लव एंड गॉड रिलीज़ मृत्यु के बाद
1986 हाथों की लकीरें रिलीज़ मृत्यु के बाद
1986 बात बन जाये रिलीज़ मृत्यु के बाद
1985 राम तेरे कितने नाम रिलीज़ मृत्यु के बाद
1985 ज़बरदस्त
1984 लाखों की बात
1984 मेरा दोस्त मेरा दुश्मन
1984 पाखंडी
1984 बद और बदनाम
1984 यादगार
1983 हीरो
1982 अंगूर
1982 सवाल
1982 सुराग
1982 हथकड़ी
1982 अय्याश
1982 खुद्दार
1982 लोग क्या कहेंगे
1982 नमकीन
1982 श्रीमान श्रीमती
1982 सिंदूर बने
1982 विधाता
1981 दासी
1981 इतनी सी बात
1981 बीवी ओ बीवी
1981 चेहरे पे चेहरा
1981 लेडीज़ टेलर
1981 वक्त की दीवार
1981 सिलसिला
1980 हम पाँच कृष्ण
1980 ज्योति बने ज्वाला
1980 अब्दुल्ला
1980 बेरहम
1980 फ़ौजी चाचा पंजाबी फिल्म
1980 पत्थर से टक्कर
1980 स्वयंवर
1980 टक्कर
1979 काला पत्थर
1979 गृह प्रवेश
1979 हमारे तुम्हारे
1979 बॉम्बे एट नाइट
1979 घर की लाज
1979 जानी दुश्मन
1979 मान अपमान
1978 त्रिशूल
1978 देवता
1978 मुकद्दर
1978 पति पत्नी और वो
1978 सावन के गीत
1978 स्वर्ग नर्क
1978 तृष्णा डॉक्टर
1978 तुम्हारे लिये
1977 मुक्ति
1977 शतरंज के खिलाड़ी
1977 यही है ज़िन्दगी
1977 ईमान धर्म
1977 आलाप
1977 अंगारे
1977 अपनापन
1977 धूप छाँव
1977 दिल और पत्थर
1977 पापी
1977 विश्वासघात
1976 ज़िन्दगी
1976 अर्जुन पंडित
1976 दो लड़कियाँ
1975 मौसम
1975 फ़रार
1975 शोले
1975 आक्रमण
1975 आँधी
1975 अपने दुश्मन
1975 अपने रंग हज़ार
1975 धोती लोटा और चौपाटी
1975 उलझन आनंद
1974 कुँवारा बाप
1974 आप की कसम
1974 मनोरंजन हवलदार
1974 अर्चना
1974 चरित्रहीन
1974 चौकीदार डॉक्टर श्याम
1974 दावत
1974 ईमान
1974 नया दिन नई रात १० विभिन्न पात्र निभाए (नायक सहित)
1974 शानदार
1973 अनहोनी
1973 अग्नि रेखा
1973 अनामिका
1973 दूर नहीं मंज़िल
1973 मनचली
1973 सूरज और चंदा
1972 परिचय
1972 कोशिश
1972 रिवाज़
1972 सबसे बड़ा सुख
1972 सीता और गीता
1972 सुबह ओ श्याम
1971 अनुभव
1971 एक पहेली
1971 कंगन
1971 मन मन्दिर
1971 पारस
1970 बचपन
1970 दस्तक
1970 देवी
1970 गुनाह और कानून
1970 इंसान और शैतान
1970 खिलौना
1970 माँ का आँचल
1970 प्रिया
1969 बंधन
1969 चंदा और बिजली
1969 धरती कहे पुकार के
1969 ग़ुस्ताखी माफ़
1969 इन्साफ का मन्दिर
1969 जीने की राह
1969 ज्योति
1969 सच्चाई
1969 सत्यकाम
1968 गौरी
1968 अनोखी रात
1968 राजा और रंक
1968 आशीर्वाद
1968 संघर्ष
1968 शिकार
1968 साथी
1966 हुस्न और इश्क
1966 बादल
1966 कालपी
1966 स्मगलर
1966 पति पत्नी
1965 निशान
1960 हम हिन्दुस्तानी

1970- राष्ट्रीय पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता -दस्तक
1977 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - अर्जुन पंडित
1976 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - आँधी
1968 फिल्म फेयर अवार्ड सहायक अभिनेता- शिकार

सलाम रूडकी


रूडकी रेलवे स्टेशन पर (भारतीय रेलवे के 150 साल की पूरे होने की याद में) 2003 में लगे पत्थर पर इस खोज को मान लिया गया है की बम्बई (मुम्बई) और ठाणे के बीच 1853 में पहली बार भाप इंजन की रेल पटरी पर दौड़ की सही तारीख नहीं है जबकि सच यह है रूडकी और पिरान कलियर के बीच 22 दिसम्बर 1851 को भारत का लोकोमोटिव इंजन "थामसन" दौड़ा था,रूडकी रेलवे स्टेशन पर लगा शिलालेख और रेलवे स्टेशन परिसर के बाहर खडा इंजन "थामसन" आज भी याद दिलाता है की 1853 में नहीं बल्कि 1851 में "थामसन" दौड़ा था पहली बार भारत में, अब रूडकी से पिरान कलियर के बीच पुराने रेल ट्रैक का नामोनिशान भी नहीं है,लन्दन का बना थामसन 1852 तक दौड़ा आग लगने तक. रूडकी में एशिया का नहीं बल्कि दुनिया के पहले इंजीनियरिंग कालेज की तामीर 25 नवंबर 1847 को हुई थी,जिसका नाम था थामसन इंजीनियरिंग कालेज.

एक थी गीता बाली


गीताबाली,हरकीर्तन कौर (1930 – 21 जनवरी 1965) हिंदी फिल्मों की ब्लैक & -वाईट के दौर की मशहूर अदाकारा रही हैं, गीता बाली का जन्म विभाजन के पूर्व के पंजाब में हुआ था । वह सिख थीं और उनके फ़िल्मों में आने से पहले उनका परिवार काफी गरीबी में रहता था। 1950 के दशक में वह काफी मशहूर अदाकारा थीं,गीताबाली ने बतौर बाल कलाकार अपने फ़िल्मी कैरियर की शुरुआत की थी,लगभग 12 साल की उम्र में,बतौर नायिका उनकी पहली फिल्म थी "बदनामी" जिसने उन्हें स्टार बना दिया था.1948 जलसा,सुहागरात,1949 बड़ी बहन, बन्सरिया,भोली,दुलारी,दिल की दुनिया, गरीबी, गलर्स स्कूल,जलतरंग,किनारा,नेकी और बदी,1950 में थी बावरे नैन जो निर्देशित की थी राजकपूर के गुरु केदार शर्मा ने हीरो राजकपूर,1950 में भाई बहन,गुलनार,निशाना, 1951 में भगवान् दादा के साथ आई थी अलबेला जिसके गाने आज भी मशहूर हैं "शोला जो भड़के दिल मेरा धडके" बाज़ी,बेदर्दी, एक था लड़का,घायल, जौहरी,निरंजन,लचक,नखरे,1952 में आनंदमठ, बहु बेटी,जाल,नज़रिया,राग रंग,ज़लज़ला, 1953 में बाज़,फिरदौस, गुनाह,झमेला,नैना, नया घर,दौर,1954 अमीर,डाकू की लड़की,फेर्री, कवि,सुहागन,1955 अलबेली,छोरा छोरी,फरार,जवाब,मिलाप.मिस कोका कोला, थी शम्मी कपूर के साथ,सौ का नोट,वचन,वरदान,बारादरी,1956
इंस्पेक्टर,लालटेन,पौकेटमार,रगीन रातें, सैलाब,ज़िन्दगी,1957 कॉफ़ी हाउस,जलती निशानी, अजी बस शुक्रिया,1958 जेलर,Ten O'Clockसीआईदी.गर्ल,1959 मोहर,नयी राहें,1961 ,सपने सुहाने, Mr. India 1963 जब से तुमने देखा, 1965 रानो,ढाल यह दोनों फिल्में पूरी नहीं हो सकी,गीता बाली ने अपने वक्त के सभी बड़े नायक-नायिका और निर्देशक के साथ काम किया सुरैया,निम्मी, नलनी जयवंत, मधुबाला,माला सिन्हा, राज कपूर,गुरु दत्त,याकूब,जसवंत,सुरेश, बलराज साहनी,नासिर खान, करण दीवान, अशोक कुमार,भगवान्,देव आनंद,भारत भूषण, प्रदीप कुमार,मोतीलाल,अजीत,शेख मुख्तार,सोहराब मोदी, रहमान,प्रेम अदीब, सज्जन, जय राज,राजेंद्र कुमार, ऐ,आर कारदार, अमिया चक्रबर्ती ,गुरु दत्त,गीताबाली ने दिलीप कुमार के साथ कोई फिल्म नहीं की गुरुदात
गुरुदत्त के साथ काम किया शम्मी कपूर के साथ चार फिल्म की 23 अगस्त 1955 को अपने से दो साल छोटे शम्मी कपूर से शादी कर ली,आदित्य और कंचन बेटे और बेटे फ़िल्मी दुनिया से दूर है, शादी के बाद भी वो फिल्मों में काम करती रही,राजकपूर जो बाद में उनके जेठ बने के साथ बावरे नैन और ससुर पृथ्वीराज कपूर के साथ आनंदमठ में हेरोइन बन कर आई ,21 जनवरी 1965 को उनकी मौत smallpox. की वज़ह से हुई थी, रानो, बन रही थी राजेंद्र सिंह बेदी के मशहूर नावेल एक चादर मैली पर रानो का किरदार मिला था गीता बाली को उनके देवर के किरदार में थे उस वक्त के उभरते कलाकार धर्मेन्द्र की,70 के दौर नायिका योगिता बाली भांजी हैं गीता बाली की,सिर्फ 35 साल की उम्र में गीता बाली ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया,पर ब्लैक & -वाईट का 50 और 60 का दशक उनकी याद दिलाता रहेगा.

निम्मी

निम्मी,1950 और 1960 के दशक की मशहूर अदाकारा रही हैं उस दौर के सभी नामचीन हीरो उनके साथ काम करने के लिए बैचैन रहते थे,उस दौर की हर सामाजिक फिल्म में निम्मी की मौजूदगी रहती थी.निम्मी का असली नाम .नवाब बानू है इनका जन्म आगरा में हुआ था १८ फरवरी १९३३ को,निम्मी की माँ का नाम वहीदन था जो अपने दौर की मशहूर गायिका,अभिनेत्री थी,वालिद अब्दुल हकीम,मिलेट्री में ठेकेदार थे.जब निम्मी केवल नौ वर्ष की थी तब माँ का इंतकाल का हो गया था,और तब उनके वालिद ने Abbottabad (अब पाकिस्तान में)भेज दिया था रहने के लिए दादी के पास. निम्मी के वालिद आगरा छोड़ मेरठ आ गये थे 1947 में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद शरणार्थियों की भीड़ में निम्मी औरउनकी दादी भी थी.बरहाल निम्मी दादी के साथ बम्बई आ गयी जहाँ उनकी मौसी ज्योति रहती थी जो की हिंदी फिल्मों में काम करती थी अब बम्बई था नया आशियाना जहाँ एक रिफ्यूजी लडकी इतिहास के पन्नों में अपना नाम दर्ज करवाने के लिए तैयार थी,1948 में, प्रसिद्ध फिल्म निर्माता-निर्देशक महबूब खान, सेंट्रल स्टूडियो बम्बई में अपनी फिल्म अंदाज़ की शूटिंग कर रहे थे, अंदाज़ में दिलीप कुमार,राज कपूर के साथ थी नर्गिस पहली और आखिरी बार इन तीनों ने एक साथ काम किया था,निम्मी भी यहाँ मौजूद थी वो अक्सर शूटिंग देखने आती थी.यही उन्हें राज कपूर ने देखा उन दिनों राज कपूर बरसात (1949) के लिए एक नए चेहरा चाहिए था २ण्ड लीड रोल के लिए,अंदाज के सेट पर निम्मी शर्मीला व्यवहार देखने के बाद, बरसात में अभिनेता प्रेम नाथ के साथ निम्मी को ले लिया बरसात में निम्मी हृदयहीन शहरी प्रेम नाथ आदमी को प्यार करती है,निम्मी ने मासूम पहाडी गड़ेरिन की भूमिका निभाई थी. बरसात ने बॉक्स आफिस पर इतिहास बनाया बरसात को अभूतपूर्व महत्वपूर्ण और व्यावसायिक सफलता मिली थी. स्थापित और लोकप्रिय सितारों नरगिस, राज कपूर और प्रेमनाथ की मौजूदगी के बावजूद, निम्मी ने अपना किरदार बखूबी निभाया था,फिल्म के लोकप्रिय शीर्षक गीत "बरसात में हम से मिले तुम"जिया बेक़रार है,पतली कमर है सभी निम्मी पर फ़िल्माये गये थे,बरसात में पहली बार हिन्दी फिल्मों में बलात्कार का सीन सामने आया और यह बलात्कार क्लासिक बन गया. फिल्म का चरमोत्कर्ष भी नवेली अभिनेत्री के इर्द - गिर्द घूमता रहा. बरसात की भारी सफलता ने निम्मी को स्टार बना दिया राजकपूर (भवंरा) , देव आनंद (सज़ा, आँधियाँ) जैसे चोटी के नायकों के साथ काम किया,दीदार (1951) और दाग (1952) जैसी फिल्मों की सफलता के बाद दिलीप कुमार के साथ बहुत लोकप्रिय और भरोसेमंद स्क्रीन जोड़ी साबित हुई. नरगिस,जिनके साथ वह साथ बरसात और दीदार में आई मधुबाला (अमर), सुरैया (शमा), गीता बाली (उषा किरण), और मीना कुमारी (चार दिल चार राहें) के साथ काम किया. निम्मी ने फिल्म बेदर्दी (1951) जिसमें काम किया अपने खुद के गीत गाए,हालांकि यह क्रम जारी नहीं रखा,महबूब खान आन (१९५२) में दिलीप कुमार,प्रेम नाथ और नादिरा के साथ लिया नादिरा की आन पहली फिल्म थी,आन भारतकी पहली टेक्नीकलर फिल्म थी इसके अलावा फिल्म का बजट बहुत बड़ा था यह फिल्म भारत के साथ विदेश में एक साथ रिलीज़ की गयी थी इस फिल्म के वक्त निम्मी की लोकप्रियता का यह आलम था कि इस फिल्म के पहले संपादित फिल्म फाइनेंसरों और वितरकों को दिखाया गया था, उन्होंने शिकायत की कि निम्मी कस चरित्र बहुत जल्दी मर गया है लिहाज़ा आन में सपना फिल्माया गया ताकि निम्मी ज्यादा वक्त परदे पर दिखें आन में निम्मी की मौत और नृत्य लोकप्रिय थे यह पहली हिंदी फिल्म जिसका अत्यंत भव्य प्रीमियर लंदन में हुआ था यहाँ निम्मी भी मौजूद थी आन का अंग्रेजी संस्करण Savage Princess. निम्मी ने Errol Flynn सहित कई पश्चिमी फिल्मी हस्तियों से मुलाकात की. जब फ्लिन उसके हाथ चुंबन करने का प्रयास किया वह इसे दूर खींच लिया, और कहा , "मैं एक भारतीय लड़की हूँ, तुम चुंबन नहीं कर सकते हो!" यह घटना सुर्खियों में आ गयी और लन्दन के प्रेस ने "भारत की unkissed लड़की" के रूप में निम्मी को पेश किया आन की कामयाबी के बाद महबूब खान ने कहा कि अपनी अगली फिल्म अमर (1954) में निम्मी को लिया फिल्म में दिलीप कुमार, मधुबाला भी थे,अमर में भी बलात्कार का सीन निम्मी पर फिल्माया गया, हालांकि फिल्म को व्यावसायिक सफलता नहीं मिल सकी थीनिम्मी ने डंका (1954) के ज़रिये प्रोडक्शन हाउस खोला,कुंदन (1955) बनाई जिसमें सोहराब मोदी के साथ नए नवेले सुनील दत्त भी थे कुंदन में,निम्मी माँ और बेटी की यादगार दोहरी भूमिका निभाई थी,उड़न खटोला (1955), दिलीप कुमार के साथ पांच फिल्मों के बाद आखिरी फिल्म थी,यह उनके कैरियर की सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस सफलता थी,उड़न खटोला के गाने आज भी लोकप्रिय हैं, 1956 में बसंत बहार और भाई भाई के साथ दो बड़ी सफलता थी. 1957 में, 24 साल की उम्र में, निम्मी को भाई भाई में निभाई भूमिका के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का आलोचक पुरस्कार प्राप्त किया. १९५० के दशक में, निम्मी प्रसिद्ध निर्देशकों चेतन आनंद (अंजलि), के.ए. अब्बास (चार दिल चार राहें) और विजय भट्ट अंगुलिमाल के साथ काम किया.निम्मी ने उस दौर में जोखिम भी लिए कुछ गलतियाँ भी की,चार दिल चार राहें (1959) वेश्या के रूप में नज़र आई,जबकि बीआर चोपड़ा की "साधना" (1958), को उन्होंने खारिज कर दिया,1963 में "वो कौन थी"भी ठुकरा दी, "साधना" ने वैजयन्ती माला को चमकाया और वो कौन थी ने साधना को चमकाया दोनों बार निम्मी साधना से हारी एक बार साधना फिल्म से तो दूसरी बार साधना हेरोइन से,निम्मी फिर गलत फैसला कर चुकी थी अब मौक़ा था हरनाम सिंह रवैल की मेरे महबूब का यह बड़े बजट की मुस्लिम सब्जेक्ट पर बनने वाली रंगीन फिल्म थी,जो रोल साधना ने निभाया वो पहले निम्मी को मिला था निम्मी का रोल बीना राय को मिला निम्मी फिर चुक गयी फिल्म की कामयाबी के बाद उन्होंने कहा था "Initially I was offered Sadhana's role and Bina Rai was to do my role. However I opted for the role of the sister as I felt it was the back bone of the story and had scope for acting. Though it didn't turn out the way I had visualised it." In rejecting the female lead, opposite a hugely popular leading man, Rajendra Kumar, for what was ostensibly a character role, Nimmi lost a valuable chance at making the successful transition into the new phase of films that were then evolving. The role Nimmi rejected was played by Sadhana and was instrumental in placing her among the most successful heroines of the 1960s. Nimmi did receive a Filmfare award nomination for best supporting actress for her performance and Mere Mehboob went on to be one of the biggest hits of 1963 at the box-office. 1960 के दशक में, साधना, नंदा, आशा पारेख, माला सिन्हा और सायरा बानो जैसी मॉड अभिनेत्रियों की नई नस्ल हिंदी फिल्मों में नायिका बन कर आने लगी थी नायिका की अवधारणा बदल रही थी, पूजा के फूल (1964) में अंधी लड़की का रोल और अशोक कुमार के साथ आकाशदीप (1965) में मूक पत्नी रिलीज़ हुई,एक स्टार के रूप में निम्मी की लोकप्रियता कम होने लगी थी.उन्होंने शादी कर फिल्मों को अलविदाकह दिया,के. आसिफ की लव & गौड़ थी उनके पास जो लैला-मजनू की कहानी पर आधारित थी, मुगल - ए - आजम (1960) के बाद के.आसिफ लव & गौड़ पर काम कर रहे थे निम्मी लैला के रोल में थी और गुरु दत्त मजनू के रूप में ,पर गुरु दत्त की ख़ुदकुशी के बाद इस फिल्म की शूटिंग पर पड़ाव पड़ गया,संजीव कुमार को मजनू के रोल में लिया गया काम शुरू हुआ कुछ दिन के बाद के.आसिफ का इंतकाल हो गया,अब इस फिल्म को मनहूस मान लिया गया.आधी अधूरी फिल्म 6 जून 1986 को रिलीज़ हुए तब संजीव कुमार इस दुनिया में नहीं थे.क.आसिफ की बेवा अख्तर आसिफ ने इसे रिलीज़ करवाया था.एक बेहतरीन फिल्म जो टेक्नीकलर में थी पहले ही दिन दम तोड़ गयी सू विवाद और अटकलों से घिरी थी निम्मी की जाती जिन्दगी दिलीप कुमार,के साथ निराधार अफवाहें और और कहानियां सामने आई थी कहते हैं की दिलीप कुमार, के निम्मी और मधुबाला दोनों से रिश्ते थे जबकी निम्मी का प्यार थे लेखक एस अली रजा, जिन्होंने उनकी फिल्मों के लिए संवाद लिखे के बरसात (1949), आन (1952) और अमर (1954). एस अली रजा बॉलीवुड के प्रसिद्ध कहानी, संवाद और पटकथा लेखक आगाजानी (कश्मीरी ) के भतीजे थे,दोनों लखनऊ से थे. एस.अली रजा की क 1 नवंबर 2007 को 85 साल की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गयी थी, विधवा निम्मी अब तनहा मुबई में रह रही है. जून 1991 में सुर्खियों में निम्मी फिर से तब आई जब यह खबर आई अभिनेत्री किमी काटकर निम्मी की बेटी है, लेकिन कोई और सबूत सामने नहीं आया यह दावा इसलिए भी किया गया होगा की है, किमी काटकर कस का चेहरा" निम्मी से मिलता जुलता है आज कल निम्मी के पास तनहाई के सिवा कुछ भी नहीं है.निम्मी को 1950 के दशक की महान अग्रणी महिलाओं में से एक माना जाता है. बरसात (1949) वफ़ा , राज मुकुट, जलते दीप (1950) सज़ा (1951) दीदार (1951) बुज़दिल (1951) बेदर्दी (1951) बड़ी बहू (1951) उषा Kiron (1952) दाग (1952) आँधियाँ (1952) आन (1952) हमदर्द (1953) अलिफ़ लैला (1953) Aabshar (1953) प्यासे नैन (1954) कस्तूरी (1954) डंका (1954) अमर (1954) उड़न खटोला (1955) समाज (1955) कुंदन (1955) चार पैसे (1955) भागवत महिमा (1955) राजधानी (1956) भाई भाई (1956) बसंत बहार (1956) अंजलि (1957) छोटे बाबू (1957) सोहनी महिवाल (1958) पहली रात (1959) चार दिल चार राहें (1959) अंगुलिमाल (1960). शम्मा (1961) मेरे मेहबूब (1963) पूजा के फूल (1964) दाल में काला (1964) आकाशदीप (1965) लव&GOD (1986)

वक्त ने किया क्या हंसी सितम....


गीतादत्त को गुज़रे 40 साल हो गये हैं,महज़ 42 साल की उम्र में दुनिया को उस वक्त अलविदा कहा जब उनके बच्चे छोटे थे,शौहर था उनकी ज़िन्दगी में जिसे उन्होंने कभी टूट कर चाहा था,शौहर दूसरी औरत के लिए पागल हो गया था,शौहर की खुदकुशी के बाद जिस दौलत और कम्पनी की मालियत उन्हें और उनके बच्चों को मिलनी थी वो सब कुछ उन्हें नहीं मिला शौहर के भाई सब ले गये,गम गलत करने के लिए शराब का सहारा लिया जब होश आया तीन बच्चों की ज़िम्मेदारी है उनके कन्धों पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी,1950 के मध्य से ही कुछ न कुछ वजहों से वो फ़िल्मी दुनिया से धीरे धीरे अलग हो रही थी.जिसने हरेक गाने को अपने अंदाज़ में गाया. नायिका, सहनायिका, खलनायिका, नर्तकी या रस्ते की बंजारिन, हर किसी के लिए अलग रंग और ढंग के गाने गाये. "नाचे घोड़ा नाचे घोड़ा, किम्मत इसकी बीस हज़ार मैं बेच रही हूँ बीच बाज़ार" आज से साठ साल पहले बना हैं और फिर भी तरोताजा हैं. "आज की काली घटा" सुनते हैं तो लगता है सचमुच बाहर बादल छा गए हैं. तब लोग कहते थे गीता गले से नहीं दिल से गाती थी! गीता दत्त का नाम ऐसी पा‌र्श्वगायिका के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने अपनी दिलकश आवाज की कशिश से लगभग तीन दशकों तक करोड़ों श्रोताओं को मदहोश किया। फिल्म जगत में गीता दत्त के नाम से मशहूर गीता घोष राय चौधरी महज 12 वर्ष की थी तब उनका पूरा परिवार फरीदपुर (अब बंगलादेश) से 1942 में बम्बई (अब मुंबई) आ गया। उनके पिता देबेन्द्रनाथ घोष रॉय चौधरी ज़मींदार थे ,गीता के कुल दस भाई बहन थे जमींदार थे। बचपन के दिनों से ही गीता राय का रूझान संगीत की ओर था और वह पा‌र्श्वगायिका बनना चाहती थी। गीता राय ने अपनी संगीत की प्रारंभिक शिक्षा हनुमान प्रसाद से हासिल की। 23 नवंबर 1930 में फरीदपुर शहर में जन्मी गीता राय को सबसे पहले वर्ष 1946 में फिल्म भक्त प्रहलाद के लिए गाने का मौका मिला। गीता राय ने कश्मीर की कली, रसीली, सर्कस किंग (1946) जैसी कुछ फिल्मो के लिए भी गीत गाए लेकिन इनमें से कोई भी बॉक्स आफिस पर सफल नही हुई। इस बीच उनकी मुलाकात महान संगीतकार एस डी बर्मन से हुई। गीता रॉय मे एस डी बर्मन को फिल्म इंडस्ट्री का उभरता हुआ सितारा दिखाई दिया और उन्होंने गीता राय से अपनी अगली फिल्म दो भाई के लिए गाने की पेशकश की। वर्ष 1947 में प्रदर्शित फिल्म दो भाई गीता राय के सिने कैरियर की अहम फिल्म साबित हुई और इस फिल्म में उनका गाया यह गीत मेरा सुंदर सपना बीत गया. लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। फिल्म दो भाई मे अपने गाये इस गीत की कामयाबी के बात बतौर पा‌र्श्वगायिका गीता राय अपनी पहचान बनाने में सफल हो गई। वर्ष 1951 गीता राय के सिने कैरियर के साथ ही व्यक्तिगत जीवन में भी एक नया मोड़ लेकर आया। फिल्म बाजी के निर्माण के दौरान उनकी मुलाकात निर्देशक गुरूदत्त से हुई। फिल्म के एक गाने तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले की रिर्काडिंग के दौरान गीता राय को देख गुरूदत्त फ़िदा हो गए। फिल्म बाजी की सफलता ने गीता राय की तकदीर बना दी और बतौर पा‌र्श्व गायिका वह फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गई। गीता राय भी गुरूदत्त से प्यार करने लगी। वर्ष 1953 में गीता राय ने गुरूदत्त से शादी कर ली। गीता राय से वो बन गयी थी गीता दत्त, साल 1956 गीता दत्त के सिने कैरियर में एक अहम पड़ाव लेकर आया। हावड़ा ब्रिज के संगीत निर्देशन के दौरान ओ पी नैयर ने ऐसी धुन तैयार की थी जो सधी हुयी गायिकाओं के लिए भी काफी कठिन थी। जब उन्होने गीता दत्त को "मेरा नाम चिन चिन चु" गाने को कहा तो उन्हे लगा कि वह इस तरह के पाश्चात्य संगीत के साथ तालमेल नहीं बिठा पायेंगी। लेकिन उन्होने इसे एक चुनौती की तरह लिया और इसे गाने के लिए उन्होंने पाश्चात्य गायिकाओ के गाये गीतों को भी बारीकी से सुनकर अपनी आवाज मे ढालने की कोशिश की और बाद में जब उन्होंने इस गीत को गाया तो उन्हें भी इस बात का सुखद अहसास हुआ कि वह इस तरह के गाने गा सकती है। गीता दत्त के पंसदीदा संगीतकार के तौर पर एस डी बर्मन का नाम सबसे पहले आता है 1गीता दत्त और एस डी बर्मन की जोड़ी वाली गीतो की लंबी फेहरिस्त में कुछ है .मेरा सुंदर सपना बीत गया (दो भाई- 1947), तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना दे (बाजी-1951), चांद है वही सितारे है वही गगन (परिणीता-1953), जाने क्या तुने सुनी जाने क्या मैने सुनी, हम आपकी आंखों मे इस दिल को बसा लें तो (प्यासा-1957), वक्त ने किया क्या हसीं सितम (कागज के फूल-1959) जैसे न भूलने वाले गीत शामिल है। गीता दत्त के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी संगीतकार ओ.पी.नैयर के साथ भी पसंद की गई। ओ पी नैयर के संगीतबद्ध जिन गीतों को गीता दत्त ने अमर बना दिया उनमें कुछ है, सुन सुन सुन जालिमा, बाबूजी धीरे चलना, ये लो मै हारी पिया, मोहब्बत कर लो जी भर लो, (आरपार-1954), ठंडी हवा काली घटा, जाने कहां मेरा जिगर गया जी, (मिस्टर एंड मिसेज 55-1955), आंखो हीं आंखो मे इशारा हो गया, जाता कहां है दीवाने (सीआईडी-1956), मेरा नाम चिन चिन चु (हावड़ा ब्रिज-1958), तुम जो हुये मेरे हमसफर (12ओ क्लाक-1958), जैसे न भूलने वाले गीत शामिल है।जिस साल फिल्म "दो भाई" प्रर्दशित हुई उसी साल फिल्मिस्तान की और एक फिल्म आयी थी जिसका नाम था शहनाई. दिग्गज संगीतकार सी रामचन्द्र ने एक फडकता हुआ प्रेमगीत बनाया था "चढ़ती जवानी में झूलो झूलो मेरी रानी, तुम प्रेम का हिंडोला". इसे गाया था खुद सी रामचंद्र, गीता रॉय और बीनापानी मुख़र्जी ने. कहाँ "दो भाई" के दर्द भरे गीत और कहाँ यह प्रेम के हिंडोले! गीतकार राजेंदर किशन की कलम का जादू हैं इस प्रेमगीत में जिसे संगीतबद्ध किया हैं सचिन देव बर्मन ने. "एक हम और दूसरे तुम, तीसरा कोई नहीं, यूं कहो हम एक हैं और दूसरा कोई नहीं". इसे गाया हैं किशोर कुमार और गीता रॉय ने फिल्म "प्यार" के लिए जो सन १९५० में आई थी. गीत फिल्माया गया था राज कपूर और नर्गिस पर."हम तुमसे पूंछते हैं सच सच हमें बताना, क्या तुम को आ गया हैं दिल लेके मुस्कुराना?" वाह वाह क्या सवाल किया हैं. यह बोल हैं अंजुम जयपुरी के लिए जिन्हें संगीतबद्ध किया था चित्रगुप्त ने फिल्म हमारी शान के लिए जो १९५१ में प्रर्दशित हुई थी. बहुत कम संगीत प्रेमी जानते हैं की गीता दत्त ने सबसे ज्यादा गीत संगीतकार चित्रगुप्त के लिए गाये हैं. यह गीत गाया हैं मोहम्मद रफी और गीता ने. रफी और गीता दत्त के गानों में भी सबसे ज्यादा गाने चित्रगुप्त ने संगीतबद्ध किये हैं.भले गाना पूरा अकेले गाती हो या फिर कुछ थोड़े से शब्द, एक अपनी झलक जरूर छोड़ देती थी. "पिकनिक में टिक टिक करती झूमें मस्तों की टोली" ऐसा युगल गीत हैं जिसमें मन्ना डे साहब और साथी कलाकार ज्यादा तर गाते हैं , और गीता दत्त सिर्फ एक या दो पंक्तियाँ गाती हैं. इस गाने को सुनिए और उनकी आवाज़ की मिठास और हरकत देखिये. ऐसा ही गाना हैं रफी साहब के साथ "ए दिल हैं मुश्किल जीना यहाँ" जिसमे गीता दत्त सिर्फ आखिरी की कुछ पंक्तियाँ गाती हैं. "दादा गिरी नहीं चलने की यहाँ.." जिस अंदाज़ में गाया हैं वो अपने आप में गाने को चार चाँद लगा देता हैं. ऐसा ही एक उदाहरण हैं एक लोरी का जिसे गीता ने गया हैं पारुल घोष जी के साथ. बोल हैं " आ जा री निंदिया आ", गाने की सिर्फ पहली दो पंक्तियाँ गीता के मधुर आवाज़ मैं हैं और बाकी का पूरा गाना पारुल जी ने गाया हैं.बात हो चाहे अपने से ज्यादा अनुभवी गायकों के साथ गाने की (जैसे की मुकेश, शमशाद बेग़म और जोहराजान अम्बलावाली) या फिर नए गायकोंके साथ गाने की (आशा भोंसले, मुबारक बेग़म, सुमन कल्याणपुर, महेंद्र कपूर या अभिनेत्री नूतन)! न किसी पर हावी होने की कोशिश न किसीसे प्रभावित होकर अपनी छवि खोना. अभिनेता सुन्दर, भारत भूषण, प्राण, नूतन, दादामुनि अशोक कुमार जी और हरफन मौला किशोर कुमार के साथ भी गाने गाये!चालीस के दशक के विख्यात गायक गुलाम मुस्तफा दुर्रानी के साथ तो इतने ख़ूबसूरत गाने गाये हैं मगर दुर्भाग्य से उनमें से बहुत कम गाने आजकल उपलब्ध हैं. ग़ज़ल सम्राट तलत महमूद के साथ प्रेमगीत और छेड़-छड़ भरे मधुर गीत गायें. इन दोनों के साथ संगीतकार बुलो सी रानी द्वारा संगीतबद्ध किया हुआ "यह प्यार की बातें यह आज की रातें दिलदार याद रखना" बड़ा ही मस्ती भरा गीत हैं, जो फिल्म बगदाद के लिए बनाया गया था. इसी तरह गीता ने तलत महमूद के साथ कई सुरीले गीत गायें जो आज लगभग अज्ञात हैं.जब वो गाती थी "आग लगाना क्या मुश्किल हैं" तो सचमुच लगता हैं कि गीता की आवाज़ उस नर्तकी के लिए ही बनी थी. गाँव की गोरी के लिए गाया हुआ गाना "जवाब नहीं गोरे मुखडे पे तिल काले का" (रफी साहब के साथ) बिलकुल उसी अंदाज़ में हैं. उन्ही चित्रगुप्त के संगीत दिग्दर्शन में उषा मंगेशकर के साथ गाया "लिख पढ़ पढ़ लिख के अच्छा सा राजा बेटा बन". और फिर उसी फिल्म में हेलन के लिए गाया "बीस बरस तक लाख संभाला, चला गया पर जानेवाला, दिल हो गया चोरी हाय..."! सन १९४९ में संगीतकार ज्ञान दत्त का संगीतबद्ध किया एक फडकता हुआ गीत "जिया का दिया पिया टीम टीम होवे" शमशाद बेग़म जी के साथ इस अंदाज़ में गाया हैं कि बस! उसी फिल्म में एक तिकोन गीत था "उमंगों के दिन बीते जाए" जो आज भी जवान हैं. वैसे तो गीता दत्त ने फिल्मों के लिए गीत गाना शुरू किया सन 1946 में, मगर एक ही साल में फिल्म दो भाई के गीतों से लोग उसे पहचानने लग गए. अगले पांच साल तक गीता दत्त, शमशाद बेग़म और लता मंगेशकर सर्वाधिक लोकप्रिय गायिकाएं रही. अपने जीवन में सौ से भी ज्यादा संगीतकारों के लिए गीता दत्त ने लगभग सत्रह सौ गाने गाये.अपनी आवाज़ के जादू से हमारी जिंदगियों में एक ताज़गी और आनंद का अनुभव कराने के लिए संगीत प्रेमी गीता दत्त को हमेशा याद रखेंगे.गीता रॉय (दत्त) ने एक से बढ़कर एक खूबसूरत प्रेमगीत गाये हैं मगर जिनके बारे में या तो कम लोगों को जानकारी हैं या संगीत प्रेमियों को इस बात का शायद अहसास नहीं है. इसीलिए आज हम गीता के गाये हुए कुछ मधुर मीठे प्रणय गीतों की खोज करेंगे. गीता दत्त और किशोर कुमार ने फिल्म मिस माला (१९५४)के लिए, चित्रगुप्त के संगीत निर्देशन में. "नाचती झूमती मुस्कुराती आ गयी प्यार की रात" फिल्माया गया था खुद किशोरकुमार और अभिनेत्री वैजयंती माला पर. रात के समय इसे सुनिए और देखिये गीता की अदाकारी और आवाज़ की मीठास. कुछ संगीत प्रेमियों का यह मानना हैं कि यह गीत उनका किशोरकुमार के साथ सबसे अच्छा गीत हैं. गौर करने की बात यह हैं कि गीता दत्त ने अभिनेत्री वैजयंती माला के लिए बहुत कम गीत गाये हैं. सन १९५५ में फिल्म सरदार का यह गीत बिनाका गीतमाला पर काफी मशहूर था. संगीतकार जगमोहन "सूरसागर" का स्वरबद्ध किया यह गीत हैं "बरखा की रात में हे हो हां..रस बरसे नील गगन से". उद्धव कुमार के लिखे हुए बोल हैं. "भीगे हैं तन फिर भी जलाता हैं मन, जैसे के जल में लगी हो अगन, राम सबको बचाए इस उलझन से".कुछ साल और पीछे जाते हैं सन १९४८ में. संगीतकार हैं ज्ञान दत्त और गाने के बोल लिखे हैं जाने माने गीतकार दीना नाथ मधोक ने. जी हाँ, फिल्म का नाम हैं "चन्दा की चांदनी" और गीत हैं "उल्फत के दर्द का भी मज़ा लो". १८ साल की जवान गीता रॉय की सुमधुर आवाज़ में यह गाना सुनते ही बनता है. प्यार के दर्द के बारे में वह कहती हैं "यह दर्द सुहाना इस दर्द को पालो, दिल चाहे और हो जरा और हो". लाजवाब! प्रणय भाव के युगल गीतों की बात हो रही हो और फिल्म दिलरुबा का यह गीत हम कैसे भूल सकते हैं? अभिनेत्री रेहाना और देव आनंद पर फिल्माया गया यह गीत है "हमने खाई हैं मुहब्बत में जवानी की कसम, न कभी होंगे जुदा हम". चालीस के दशक के मशहूर गायक गुलाम मुस्तफा दुर्रानी के साथ गीता रॉय ने यह गीत गाया था सन 1950 में. आज भी इस गीत में प्रेमभावना के तरल और मुलायम रंग हैं. दुर्रानी और गीता दत्त के मीठे और रसीले गीतों में इस गाने का स्थान बहुत ऊंचा हैं.गीतकार अज़ीज़ कश्मीरी और संगीतकार विनोद (एरिक रॉबर्ट्स) का "लारा लप्पा" गीत तो बहुत मशहूर हैं जो फिल्म "एक थी लड़की में" था. उसी फिल्म में विनोद ने गीता रॉय से एक प्रेमविभोर गीत गवाया. गाने के बोल हैं "उनसे कहना के वोह पलभर के लिए आ जाए". एक अद्भुत सी मीठास हैं इस गाने में. जब वाह गाती हैं "फिर मुझे ख्वाब में मिलने के लिए आ जाए, हाय, फिर मुझे ख्वाब में मिलने के लिए आ जाए" तब उस "हाय" पर दिल धड़क उठता हैं.सन १९४८ में पंजाब के जाने माने संगीतकार हंसराज बहल के लिए फिल्म "चुनरिया" के लिए गीता ने गाया था "ओह मोटोरवाले बाबू मिलने आजा रे, तेरी मोटर रहे सलामत बाबू मिलने आजा रे". एक गाँव की अल्हड गोरी की भावनाओं को सरलता और मधुरता से इस गाने में गीता ने अपनी आवाज़ से सजीव बना दिया है.सन 1950 में फिल्म "हमारी बेटी" के लिए जवान संगीतकार स्नेहल भाटकर (जिनका असली नाम था वासुदेव भाटकर) ने मुकेश और गीता रॉय से गवाया एक मीठा सा युगल गीत "किसने छेड़े तार मेरी दिल की सितार के किसने छेड़े तार". भावों की नाजुकता और प्रेम की परिभाषा का एक सुन्दर उदाहरण हैं यह युगल गीत जिसे लिखा था रणधीर ने.बावरे नैन फिल्म में संगीतकार रोशन को सबसे पहला सुप्रसिद्ध गीत (ख़यालों में किसी के) देने के बाद अगले साल गीता रॉय ने रोशन के लिए फिल्म बेदर्दी के लिए गाया "दो प्यार की बातें हो जाए, एक तुम कह दो, एक हम कह दे". बूटाराम शर्मा के लिखे इस सीधे से गीत में अपनी आवाज़ की जादू से एक अनोखी अदा बिखेरी हैं गीता रोय ने.पाश्चात्य धुन पर थिरकता हुआ एक स्वप्नील प्रेमगीत हैं फिल्म ज़माना (१९५७) से जिसके संगीत निर्देशक हैं सलील चौधरी और बोल हैं "दिल यह चाहे चाँद सितारों को छूले ..दिन बहार के हैं.." उसी साल प्रसिद्द फिल्म बंदी का मीठा सा गीत हैं "गोरा बदन मोरा उमरिया बाली मैं तो गेंद की डाली मोपे तिरछी नजरिया ना डालो मोरे बालमा". हेमंतकुमार का संगीतबद्ध यह गीत सुनने के बाद दिल में छा जाता है.संगीतकार ओमकार प्रसाद नय्यर (जो की ओ पी नय्यर के नाम से ज्यादा परिचित है) ने कई फिल्मों को फड़कता हुआ संगीत दिया. अभिनेत्री श्यामा की एक फिल्म आई थी श्रीमती ४२० (१९५६) में, जिसके लिए ओ पी ने एक प्रेमगीत गवाया था मोहम्मद रफी और गीता दत्त से. गीत के बोल है "यहाँ हम वहां तुम, मेरा दिल हुआ हैं गुम", जिसे लिखा था जान निसार अख्तर ने.आज के युवा संगीत प्रेमी शायद शंकरदास गुप्ता के नाम से अनजान है. फिल्म आहुती (1950) के लिए गीता राय ने शंकरदास गुप्ता के लिए युगल गीत गाया था "लहरों से खेले चन्दा, चन्दा से खेले तारे". उसी फिल्म के लिए और एक गीत इन दोनों ने गाया था "दिल के बस में हैं जहां ले जाएगा हम जायेंगे..वक़्त से कह दो के ठहरे बन स्वर के आयेंगे". एक अलग अंदाज़ में यह गीत स्वरबद्ध किया हैं, जैसे की दो प्रेमी बात-चीत कर रहे हैं. गीता अपनी मदभरी आवाज़ में कहती हैं -"चाँद बन कर आयेंगे और चांदनी फैलायेंगे"."दिल-ऐ-बेकरार कहे बार बार,हमसे थोडा थोडा प्यार भी ज़रूर करो जी". इस को गाया हैं गीता दत्त और गुलाम मुस्तफा दुर्रानी ने फिल्म बगदाद के लिए और संगीतबद्ध किया हैं बुलो सी रानी ने. जिस बुलो सी रानी ने सिर्फ दो साल पहले जोगन में एक से एक बेहतर भजन गीता दत्त से गवाए थे उन्हों ने इस फिल्म में उसी गीता से लाजवाब हलके फुलके गीत भी गवाएं. और जिस राजा मेहंदी अली खान साहब ने फिल्म दो भाई के लिखा था "मेरा सुन्दर सपना बीत गया" , देखिये कितनी मजेदार बाते लिखी हैं इस गाने में: दुर्रानी : मैं बाज़ आया मोहब्बत से, उठा लो पान दान अपना गीता दत्त : तुम्हारी मेरी उल्फत का हैं दुश्मन खानदान अपना दुर्रानी : तो ऐसे खानदान की नाक में अमचूर करो जी सचिन देव बर्मन ने जिस साल गीता रॉय को फिल्म दो भाई के दर्द भरे गीतों से लोकप्रियता की चोटी पर पहुंचाया उसी साल उन्ही की संगीत बद्ध की हुई फिल्म आई थी "दिल की रानी". जवान राज कपूर और मधुबाला ने इस फिल्म में अभिनय किया था. उसी फिल्म का यह मीठा सा प्रेमगीत हैं "आहा मोरे मोहन ने मुझको बुलाया हो". इसी फिल्म में और एक प्यार भरा गीत था "आयेंगे आयेंगे आयेंगे रे मेरे मन के बसैय्या आयेंगे रे". और अब आज की आखरी पेशकश है संगीतकार बुलो सी रानी का फिल्म दरोगाजी (१९४९) के लिया संगीतबद्ध किया हुआ प्रेमगीत "अपने साजन के मन में समाई रे". बुलो सी रानी ने इस फिल्म के पूरे के पूरे यानी 12 गाने सिर्फ गीता रॉय से ही गवाए हैं. अभिनेत्री नर्गिस पर फिल्माया गया यह मधुर गीत के बोल हैं मनोहर लाल खन्ना (संगीतकार उषा खन्ना के पिताजी) के. गीता की आवाज़ में लचक और नशा का एक अजीब मिश्रण है जो इस गीत को और भी मीठा कर देता हैं. वर्ष 1957 मे गीता दत्त और गुरूदत्त की विवाहित जिंदगी मे दरार आ गई। गुरूदत्त ने गीता दत्त के काम में दखल देना शुरू कर दिया। वह चाहते थे गीता दत्त केवल उनकी बनाई फिल्म के लिए ही गीत गाये। काम में प्रति समर्पित गीता दत्त तो पहले इस बात के लिये राजी नही हुयी लेकिन बाद में गीता दत्त ने किस्मत से समझौता करना ही बेहतर समझा। धीरे-धीरे अन्य निर्माता निर्देशको ने गीता दत्त से किनारा करना शुरू कर दिया। कुछ दिनो के बाद गीता दत्त अपने पति गुरूदत्त के बढ़ते दखल को बर्दाशत न कर सकी और उसने गुरूदत्त से अलग रहने का निर्णय कर लिया। इस बात की एक मुख्य वजह यह भी रही कि उस समय गुरूदत्त का नाम अभिनेत्री वहीदा रहमान के साथ भी जोड़ा जा रहा था जिसे गीता दत्त सहन नही कर सकी। गीता दत्त से जुदाई के बाद गुरूदत्त टूट से गये और उन्होंने अपने आप को शराब के नशे मे डूबो दिया। दस अक्तूबर 1964 को अत्यधिक मात्रा मे नींद की गोलियां लेने के कारण गुरूदत्त इस दुनियां को छोड़कर चले गए। गुरूदत्त की मौत के बाद गीता दत्त को गहरा सदमा पहुंचा और उसने भी अपने आप को नशे में डुबो दिया। गुरूदत्त की मौत के बाद उनकी निर्माण कंपनी उनके भाइयो के पास चली गयी। गीता दत्त को न तो बाहर के निर्माता की फिल्मों मे काम मिल रहा था और न ही गुरूदत्त की फिल्म कंपनी में। इसके बाद गीता दत्त की माली हालत धीरे धीरे खराब होने लगी। कुछ वर्ष के पश्चात गीता दत्त को अपने परिवार और बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास हुआ तरुण ( 1954), अरुण (1956),और नीना ( 1962) का भविष्य उनके सामने था और वह पुन: फिल्म इंडस्ट्री में अपनी खोयी हुयी जगह बनाने के लिये संघर्ष करने लगी। "मंगेशकर बैरियर" भी सामने था लिहाज़ा वो दुर्गापूजा में होने वाले स्टेज कार्यकर्मों के लिए गा कर गुज़र बसर करने लगी,ज़मींदार घराने की गीता दत्त के आख़िरी दिन मुफलिसी में गुज़रे ,1967 में रिलीज़ बंग्ला फिल्म बधू बरन में गीता दत्त को काम करने का मौका मिला जिसकी कामयाबी के बाद गीता दत्त कुछ हद तक अपनी खोयी हुयी पहचान बनाने में सफल हो गई। हिन्दी के अलावा गीता दत्त ने कई बांग्ला फिल्मों के लिए भी गाने गाए। इनमें तुमी जो आमार (हरनो सुर-1957), निशि रात बाका चांद (पृथ्वी आमार छाया-1957), दूरे तुमी आज (इंद्राणी-1958), एई सुंदर स्वर्णलिपि संध्या (हॉस्पिटल-1960), आमी सुनचि तुमारी गान (स्वरलिपि-1961) जैसे गीत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय है। सत्तर के दशक में गीता दत्त की तबीयत खराब रहने लगी और उन्होंने एक बार फिर से गीत गाना कम कर दिया। 1971 में रिलीज़ हुई अनुभव में गीता दत्त ने तीन गीत गाये थे,संगीतकार थे कनु राय " कोई चुपके से आके" "मेरा दिल जो मेरा होता ""मेरी जान मुझे जान न कहो" इस फिल्म में काम करने के बाद वो बीमार रहने लगी:आखिकार 20 जुलाई 1972 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया ।

Tuesday, July 10, 2012

एक थी "विम्मी"


विमलेश सिल्वर स्क्रीन की चकाचौंध भरी जिंदगी का स्याह पेज है,इनकी शुरूआती जिंदगी के बारे में जानकारी बहुत ही कम है,बीते जमाने के कई मशहूर कलाकारों का आखिरी वक़्त मुफलिसी में गुज़रा (कई नाम हैं जिन पर फिर कभी बात होगी)  विमलेश अग्रवाल का जन्म 1935 में पंजाब के जालंधर में हुआ था,विमलेश जिद्दी पंजाबी लड़की थी जो सबसे पहले अपने माता-पिता के खिलाफ विद्रोह करती है और एक मारवाड़ी उद्योगपति के बेटे शिव अग्रवाल से शादी कर लेती है,जालंधर से उनका परिवार बम्बई पहुंचा और बस गया  विमलेश ने बम्बई सेंट सोफिया कालेज से मनोविज्ञान में "एम्.ऐ.किया बम्बई में उनकी मुलाक़ात हुई  शिव अग्रवाल से जल्दी दोनों ने शादी  करने का फैसला कर लिया इस शादी के लिए दोनों के परिवार तैयार नहीं थे विमलेश साधारण परिवार से थी और शिव करोड़पति परिवार से जिनका कलकत्ता में  स्टील का कारोबार था ,बरहाल विमलेश ने अपनी जिद पूरी की शिव से शादी कर ली और कलकत्ता में जा बसी,जिद्दी विमलेश का दूसरा विद्रोह था ससुराल वालों से, बी आर चोपड़ा. एक सस्पेंस फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे,नायिका की तलाश कर रहे थे उन्हें जरूरत थी एक नए  चेहरे की,सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थी,"हमराज" यही नाम था आने वाली फिल्म का जो हिंदी सिनेमा के इतिहास की एक और कामयाब फिल्म होने का तमगा पाने जा रही थी हमराज के  संगीत निर्देशक रवि ने विम्मी को कलकत्ता में एक पार्टी में देखा और उन्हें बम्बई आने की दावत दे दी विमलेश पर अब जिद  सवार थी "हेरोइन" बनने की  जिसके लिए ससुराल वालों से लड़ी,पति शिव अग्रवाल  ने "विमलेश" का साथ दिया, अपने दोनों बच्चों को ससुराल में छोड़  कर पति पत्नी बम्बई आ गये,और यहाँ दो बच्चों की माँ विमलेश  बन गयी बी आर चोपड़ा. की 'हमराज़' 1967 की नायिका "विम्मी"बला की खूबसूरत "विम्मी" के दीवाने साहिर लुधियानवी भी हो गये थे ऐसा कहा जाता है हमराज का यह गीत "विम्मी" को ही देख कर साहिर लुधियानवी ने लिखा था "किसी पत्थर की मूरत से,मोहब्बत का  इरादा है,प्राश्चित की तमन्ना है,इबादत का इरादा है"हमराज" के बीस सीन में "विम्मी"थी हर सीन में नयी ड्रेस थी इस फिल्म के लिए उन्हें मिले थे तीन लाख रूपये "हमराज" के हिट होते ही "विम्मी" के पास फिल्म निर्माता उन्हें हाथों हाथ लेने की दौड़ पड़े,एक सुपर हिट "विम्मी" के खाते में थी, पर विम्मी ने कई  मशहूर निर्मातों के आफर यह कह ठुकरा दिए की यह सब वक्ती है "हमराज" के बाद उनके हाथ में सिर्फ "आबरू" (1968) थी,पति शिव अग्रवाल "विम्मी" के साथ शूट पर जाते थे शिव अग्रवाल उस वक्त अड़ जाते थे जब रोमांटिक सीन्स होते थे रोमांटिक सीन्स पर इस एतराज़ पर "विम्मी" ने पति को शुरू में समझाने की कोशिश  की पर शिव नहीं माने,पति का "हस्तक्षेप बढ चुका था"विम्मी"को यकीन"जॉली" पर था,लिहाज़ा  पति पत्नी के बीच दूरियां आने लगी वे  लोग सेट पर लड़ाई करते देखे जाने लगे और इस आग में घी डालने का काम "जॉली ' ने किया "जॉली ' नाकामयाब निर्माता  थे, अपनी पत्नी को पराये मर्द की बात मानता देख शिव अग्रवाल "विम्मी" को छोड़ कर कलकत्ता वापस अपने परिवार के पास लौट गये,हमराज़  (1967) के अलावा विम्मी ने आबरू (1968) नानक नाम जहाज़  है  (1969) पंजाबी,पतंगा (1971) गुड्डी(1971) कही आर कहीं  पार(1971)वचन(1974) में काम किया था,पर किसी फिल्म को हमराज जैसी कामयाबी नहीं मिली, नानक नाम जहाज़  है (1969) पंजाबी फिल्म ने सिल्वर जुबली की थी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, विम्मी साधारण परिवार से थी,ससुराल करोड़ पति था लिहाज़ा वो महंगी जीवन शैली जीने की आदि थी,अब ना तो वो स्टारडम था और न पैसा ले देकर एक ही आदमी था उनके जीवन में जिसका नाम था "जॉली" ने विम्मी का भरपूर" इस्तेमाल" किया और उसी ने एक दिन गम गलत करने के लिए विम्मी के हाथ में देशी दारू की बोत्तल दे दी अब विम्मी नशे की आदि हो चुकी थी अगर इस सच पर यकीन करें तो विम्मी ने पेट की भूख शांत करने और शराब के लिए "वेश्यावृत्ति" शुरू कर दी महज 42 साल की उम्र में विम्मी की मौत बम्बई के एक सरकारी अस्पताल नानावती के जनरल वार्ड में 22 अगस्त 1977 में हुई और सांताक्रूज शवदाह गृह में उनका अंतिम संस्कार हुआ जहाँ उनका शव हतथू "ठेले" पर लेकर पहुंचा था जॉली,जहाँ कुल नौ लोग थे,फ़िल्मी दुनिया से निर्माता /निर्देशक एस.दी.नारंग और उनके भाई मौजूद थे,जॉली कब विम्मी के नजदीक आया पता नहीं कहा जाता है के उसने निर्मातों से रूपये लेने शुरू कर दिए थे की वो विम्मी का "खास" शूट करवा देगा जब इस शूट की बारी आती तो शिव अग्रवाल बीच में आ जाते तब विम्मी जॉली का पक्ष लेती सेट पर ही जल्द ही यह वज़ह विम्मी और शिव के बीच अलगाव बनी अब थी "विम्मी" और शराब न घर न ससुराल न दोस्त,ना फ़िल्मी दुनिया से कोई.और नाही बच्चे जिन्हें वो कलकत्ता में छोड़ आई थी,मायका वो शिव के लिए छोड़ आई थी ससुराल फिल्मों के लिए,शिव ने "विम्मी'की  हेरोइन बनने की जिद को पूरा करने के लिए कलकत्ता  छोड़ा, रोमांटिक सीन्स ने पति पत्नी को अलग किया जॉली की चालों और "विम्मी" की जिद ने,बम्बई सड़कों पर इम्पाला कार का इस्तेमाल करने वाली "विम्मी" का अंतिम सफर  हतथू "ठेले" पर  था जो आया था बम्बई नगर निगम से,बहुत ज्यादा देशी शराब पीने से उनका लीवर खराब हो चुका था  
 जब वो अपने पति के साथ बम्बई आई थी तब उनका ठिकाना था होटल ताज महल का वी.आई.पी. सूट.उनका इरादा था शायद हमराज़ करके वापस कलकत्ता लौट जाना,होनी को कुछ और ही मंज़ूर था,जिद्दी विम्मी को पति का एतराज़  रोमांटिक सीन्स को लेकर पसंद नहीं आया  निर्मातों ने विम्मी को अपनी फिल्म से निकाल दिया कुछ ने रूपये वापस ले लिए,लिहाजा जॉली की सलाह पर कुछ फ़िल्में साइन तो की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी  ज़िन्दगी के आखिरी दिन किसी चौल  में भी गुज़ारे थे "विम्मी" ने, हैरानी की बात तो यह है उनका भरोसा आखिर तक जॉली पर बना रहा,जॉली ही उन्हें अर्श से फर्श पर लाया था उसी ने एक बेहद जिद्दी औरत को कही का नहीं छोड़ा था यह जिद थी एक औरत की या जॉली के रूप में थी "विम्मी" की बर्बादी 

टिकैत राय


अवध की गंगा जमुनी तहज़ीब की मिसाल शायद कही मिले,अवध के नवाबों और उनकी बेगमों ने मंदिर तामीर करवाए तो हिन्दू राजाओं ने रौज़े,इमामबाड़े,और मस्जिदों की तामीर करवाई,इतिहास के इन्ही पन्नों में दर्ज है "महाराजा टिकैत राय"का नाम जिनके जिर्क के बिना अवध की गंगा जमुनी तहज़ीब की मिसाल अधूरी रहेगी, "महाराजा टिकैत राय " ने पुराने लखनऊ में एक मस्जिद की तामीर करवाई जिसे टिकैत राय की मस्जिद के नाम से जाना जाता है,और इस इलाके को टिकैतगंज के नाम से जाना जाता है मस्जिद और यह मोहल्ला आज भी कायम है, "महाराजा टिकैत राय " ने लखनऊ हरदोई मार्ग पर रहमान खेडा के नजदीक बेहटा नदी के किनारे भगवान् शिव के मंदिर की स्थापना की यह साल था 1795. बेहटा नदी पर बने पुराने पुल जब जर्ज़र हो गया तो पास में एक और पुल बना दिया गया,पुराने पुल पर दो भव्य प्रवेश द्वार आज भी कायम है,यह मंदिर भारतीय पुरातत्व विभाग के द्वारा संरक्षित घोषित किया जा चुका है,इसी दौरान पुराने लखनऊ के में शीतला माता के नाम पर मेहँदी गंज में मंदिर का निर्माण करवाया जहाँ आज भी होली के आठवें दिन मेला लगता है, महाराजा टिकैत राय बहादुर (1760–1808 ) कायस्थ परिवार से थे,1791- 1796 के बीच महाराजा टिकैत राय बहादुर अवध में दीवान थे Asaf-u-daula.के शासन काल में "महाराजा टिकैत राय ने लखनऊ में तब के भदेवा के जंगल में तालाब की तामीर करवाई,यह इलाका अब राजाजी पुरम के नाम से जाना जाता है,अब यह तालाब सिर्फ नाम भर का ही रह गया है,तालाब की ज़मीन पर कालोनी खड़ी हो गयी,इसी तालाब के करीब सरकारी कर्मचारियों की आवासीय कालोनी बनी जिसे टिकेत राय तालाब कालोनी के नाम से जाना जाता है, इस तालाब को ख़ूबसूरती देने के लिए लखनऊ के तब के सांसद अटल बिहारी बाजपेइ ने यहाँ MUSICAL FOUNTEIN बनवा दिया मंशा थी की यह तालाब अच्छा लगेगा..पर अटल जी की इस कोशिश को भी भुला दिया गया.